कुछ दोहे
बढ़ते पंछी को हुआ, जब पंखों का भान।
सम्बंधों के देखिए, बदल गए प्रतिमान।
देखी नटखट भ्रमर की, जब कलियों से प्रीत।
चुपके-चुपके लेखनी, लगी चुराने गीत।
छेड़ रहे हैं बैठ कर, हरियाली के तार।
भू माता की गोद में, रितुओं के सरदार।
जिस जंगल की रोज़ ही, उजड़ रही तक़दीर।
उसकी काग़ज़ पर मिली, हरी-भरी तस्वीर।
जर्जर पड़े शरीर को, देकर कुछ आराम।
बूढ़ा कम्बल कर रहा, सर्दी से संग्राम।
आहत बरसों से पड़ा, रंगों में अनुराग।
आओ टेसू लौट कर, बुला रहा है फाग।
उद्योगों की देखिए, महिमा अपरम्पार।
अवशिष्टों से कर रहे, नदियों का शृंगार।
किया शेर की पीठ पर, जब धोखे से वार।
उसी वक़्त तय हो गयी, गीदड़ तेरी हार।
लगा रही माँ भारती, कब से यही गुहार।
खड़ी न होने दीजिए, कोई भी दीवार।
वहशीपन के नाश में, नहीं रही अब देर।
ओढ़ तिरंगा कह गए, भारत माँ के शेर।
कृपा इस तरह कर रहा, वृक्षों पर इन्सान।
नहीं दूर अब रह गया, घर से रेगिस्तान।
नवयुग में है झेलती, अवशिष्टों के रोग।
गंगा माँ को चाहिए, भागीरथ से लोग।
भोर सुहानी आ गयी, अब दिनकर का काम।
चन्दा मामा तुम करो, घर जाकर आराम।
तम के बदले हृदय में, भरने को उल्लास।
दीपक में ढल जल उठे, माटी-तेल-कपास।
फिर नैनों में बस गए, कर दी नींद खराब।
कितने धोखेबाज़ हैं, दो रोटी के ख़्वाब।
– राजीव ‘प्रखर’
मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश)