कुछ दोहे और
शहरों में होती कहाँ, सुखद सुहानी भोर।
बहुमंजिली इमारतें, दिखती हैं चहुंओर।।
काशी शिव का धाम है, बम-बम बोलो मीत।
मधुर करें शम्भू सदा, जीवन का संगीत।।
शिव की महिमा का किया, जिसने भी गुणगान।
‘सूर्य’ उसे मिलता रहा, जीवन भर सम्मान।।
सदा न रहते एक सा, समय और संयोग।
जो समझे इस बात को, सुखी बही हैं लोग।।
निर्जल व्रत पत्नी करे, साजन रहें निरोग।
चांद निहारे चांद के, अद्भुत बा संयोग।।
नैनों से झड़ते यहाँ, अब तो निशदिन आब।
जब से मैं समझा गया, सूखा हुआ गुलाब।।
वैसे तो कुछ भी नहीं, असर हुआ है यार।
हृदय क़फ़स खाली पड़ा, लगता है बेकार।।
सूर्य उसे दिखता नहीं, दृग में तेरे आब।
भूला दिए गए यहाँ , सूखे हुए गुलाब।।
घबड़ाने से कुछ नहीं, हासिल होगा यार।
जीवन ही संघर्ष है, लड़ो बढ़ो हर बार।।
जबसे तनहा छोड़कर, चले गए हो आप।
अश्क उलझ के रह गए, नैनों में चुपचाप।।
कहना कुछ बाकी नहीं, कहे नहीं कुछ आप।
नैनों की भाषा नयन, समझ गये चुपचाप।।
आए आकर चल गए, मिले नहीं क्यों आप।
हाय मुहब्बत भोगता, जाने कैसा श्राप।।
कहने को कुछ है नहीं, अब तो मेरे पास।
टूटा हृदय गरीब का, लगता है बकवास।।
मिलना तुम से एक पल, यार बहुत था खास।
महक रहा हर सांस यूं, जैसे तुम हो पास।।
छुपा नहीं है आप से, मेरे दिल की बात।
याद तुम्हारी आ रही, साथी अब दिन-रात।।
पतझड़ जैसी जिंदगी, दिखे शूल हीं शूल।
अब तो मुरझाने लगे, इच्छाओं के फूल।।
सजग रहे हम-आप तो, होगा सब साकार।
मिट जाएगा एक दिन, रिश्र्वत भ्रष्टाचार।।
सब्र नहीं आया जिसे, जीना हुआ हराम।
यद्यपि खूब कमा लिया, दौलत लाख तमाम।।
कमी करे विश्वास की, रिश्तों को बेजान।
यद्यपि ओंठो पर वही, रहती है मुस्कान।।
गढ़ा मुक्त करते सड़क, खूब चकतियाँ साट।
सर पर चढ़ा चुनाव अब, खड़ी हुई है खाट।।
फसल हुई तैयार तो, किया प्रकृति ने खेल।
बेमौसम बरसात को, कृषक रहे हैं झेल।।
(स्वरचित मौलिक)
#सन्तोष_कुमार_विश्वकर्मा_सूर्य
तुर्कपट्टी, देवरिया, (उ.प्र.)
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