कुंडलिया
कुंडलिया
मनमानी किसकी चली, उसके आगे मित्र ।
वो जीवन के खींचता, चलते फिरते चित्र ।
चलते फिरते चित्र ,समझ ना कुछ भी आया ।
उस दाता के खेल, अजब है उसकी माया ।
कह ‘ सरना ‘ कविराय, नहीं है उसका सानी ।
चले कभी न मित्र , जीव की फिर मनमानी ।
सुशील सरना / 29-2-24