कुंडलिया छंद
कुंडलिया छंद …..
मनमानी किसकी चली, उसके आगे मित्र ।
वो जीवन के खींचता, चलते फिरते चित्र ।
चलते फिरते चित्र ,समझ ना कुछ भी आया ।
उस दाता के खेल, अजब है उसकी माया ।
कह ‘ सरना ‘ कविराय, नहीं है उसका सानी ।
चले कभी न मित्र , जीव की फिर मनमानी ।
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राहें जीवन की बड़ी, होती हैं दुश्वार।
एक छोर पर जिंदगी ,एक छोर भव पार।
एक छोर भव पार, यहाँ सब बिखरे सपने ।
हर पल दें आघात , यहाँ पर सारे अपने ।
कह ‘ सरना ‘ कविराय, यहाँ बस गूँजें आहें ।
दूर-दूर तक दर्द, भरी हैं जीवन राहें ।
सुशील सरना / 30-11-23