कुंडलिया छंद
पावस-सा हर व्यक्ति का ,जब होगा व्यवहार।
शोषित वंचित का तभी , संभव है उद्धार।
संभव है उद्धार , मदद को हाथ बढ़ाओ।
तृषित अधर की प्यास, स्वार्थ को छोड़ बुझाओ।
बरसाओ अपनत्व ,रखो मत कलुषित अंतस।
हर लो सबकी पीर, सिखाए यह ही पावस।।1
धरती गर्मी धूप से, जब होती बेहाल।
पावस देकर प्यार तब,लेती उसे सँभाल।
लेती उसे सँभाल,लबों की प्यास बुझाए।
कर देती रस-सिक्त,बाग गुलज़ार बनाए।
हरीतिमा से युक्त ,मोद मन में है भरती।
पाकर पावस साथ,मगन रहती है धरती।।2
पावस के सान्निध्य से,बदल गया व्यवहार।
रूप नवोढ़ा-सा धरा, अचला कर सिंगार।
अचला कर सिंगार, बनी हर दिल की रानी।
देह हुई रस-सिक्त, ओढ़ ली चूनर धानी।
सबका अपनी ओर,ध्यान वह खींचे बरबस।
हरियाली से युक्त ,धरा को करती पावस।।3
डाॅ बिपिन पाण्डेय