Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
5 Jan 2023 · 12 min read

कुंडलिया छंद की विकास यात्रा

कुंडलिया छंद की विकास यात्रा
कुंडलिया शब्द की उत्पत्ति ‘कुंडलिन’ या ‘कुंडल’ शब्द से हुई है। कुंडल का अर्थ है- गोल अथवा वर्तुलाकार वस्तु। सर्प के बैठने की मुद्रा ‘कुंडली’ कहलाती है। जब वह बैठता है तो उसकी पूँछ और मुख आपस में एक दूसरे के पास दिखते हैं। कुंडलिया शब्द सर्प की इसी कुंडली की आकृति से लिया गया है क्योंकि इस छंद का आरंभ जिस शब्द से होता है,उसी शब्द से छंद का समापन भी करना होता है। इतना ही नहीं, दोहे के चतुर्थ चरण को रोले के प्रथम चरणांश के रूप में भी प्रयोग किया जाता है जो एक कुंडलीनुमा आकृति बनाने में सहायक होता है और सर्प की कुंडली की याद अनायास ही आ जाती है।
‘प्राकृत पिंगल सूत्रम्’ के पृष्ठ संख्या 70 पर कुंडलिया छंद का लक्षण तथा पृष्ठ संख्या -71 पर जो उदाहरण उद्धृत है वही प्राकृत पैंगलम् भाग-1, पृष्ठ संख्या 129 पर भी दिया गया है जिसमें वीर हम्मीर के दिल्ली प्रयाण का वर्णन है। प्राकृत पैंगलम् ग्रंथ के निवेदन में पृष्ठ संख्या 4 में उल्लिखित है कि ‘हिंदी के आदिकाल का एक संग्रह ग्रंथ है जिसका विषय पुरानी हिंदी के आदिकालीन कवियों द्वारा प्रयुक्त वर्णिक तथा मात्रिक छंदों का विवेचन है।’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने भी ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ नामक ग्रंथ में अपभ्रंश काल के अंतर्गत पृष्ठ 25 पर इसी कुंडलिया छंद को उद्धृत करते हुए इसे शार्ङ्गधर प्रणीत ‘हम्मीर रासो’ का होना माना है और लिखा है कि ‘मुझे पूरा निश्चय है कि ये पद्य असली ‘हम्मीर रासो’ के हैं।’ उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि ‘ यह काव्य आजकल नहीं मिलता- उसके अनुकरण पर बहुत पीछे का लिखा हुआ एक ग्रंथ ‘हम्मीर रासो’ नाम का मिलता है। बाबू श्यामसुन्दर दास जी द्वारा सम्पादित ‘हम्मीर रासो’ कृति में इस छंद का कहीं उल्लेख नहीं है। परंतु यह असंदिग्ध है कि यह छंद हम्मीर रासो का ही है। हो सकता है हम्मीर रासो की जो सामग्री श्यामसुन्दर दास जी को संपादन हेतु उपलब्ध हुई हो वह अपूर्ण रही हो, इसलिए जो छंद आचार्य शुक्ल जी ने हिंदी साहित्य का इतिहास में उद्धृत किए हैं वे उन्हें प्राप्त न हो सके हों।
प्राकृतपैंगलम छन्दशास्त्र का एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमें प्राकृत और अपभ्रंश छन्दों की विवेचना की गयी है। इसमें अनेक कवियों के छन्द मिलते हैं, जैसे विद्याधर, शार्ङ्गधर, जज्ज्वल, बब्बर, हरिब्रह्म, लक्ष्मीधर आदि। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी का मत है कि प्राकृतपैंगलम किसी एक काल की रचना नहीं है। इस ग्रंथ में कुंडलिया छंद का लक्षण और उदाहरण दिया है , जो निम्नलिखित है-
[अथ कुंडलिया ]
दोहा लक्खण पढम पढि कव्वह अद्ध णिरुत्त।
कुंडलिआ बुहअण मुणहु उल्लाले संजुत्त ।।
उल्लाले संजुत जमक सुद्धउ सलहिज्जइ ।
चउआलह सउ मन्त सुकइ दिढवंधु कहिज्जइ ॥
चउआलह सउ मत्त जासु तणु भूषण सोहा ।
एम कुँडलिआ जाणडु पढम जह पढिअइ दोहा ॥146
.कुंडलिया छंद-
हे बुधजन, पहले दोहा के लक्षण को पढ़कर, फिर काव्य (रोला) छंद दो, उसे उलाला से संयुक्त कर अर्थात् दोहा के चरण की पुनरुक्ति कर कुंडलिया समझो। उल्लाला से उक्त तथा यमक से शुद्ध कुंडलिया श्रेष्ठ समझा जाता है। इसमें 144 मात्रा होती हैं, सुकवि इसे दृढबंध कहते हैं। जिसमें 144 मात्रा शरीर की शोभा है, इस प्रकार वह कुंडलिया छंद जानो, जहाँ पहले दोहा पढ़ा जाता है।
उदाहरण-
ढाल्ला मारिअ ढिल्लि महँ मुच्छिअ मेच्छसरीर।
पुर जज्जला मंतिवर चलिअ वीर हम्मीर ॥
चलिए वीर हम्मीर पाअभर मेइणि कंपअ ।
दिग मग णह अंधार धूलि सूरह रह झंपइ ॥
दिग मग णह अंधार आण खुरसाणक आल्ला।
दरमरि दमसि विपक्ख मारु ढिल्लई महँ ढाल्ला ॥147
अर्थ-
दिल्ली में (जाकर ) वीर हमीर ने रणदुंदुभि (युद्ध का ढोल) बजाया; जिसे सुनकर म्लेच्छों के शरीर मूर्च्छित हो गये । जज्जल मन्त्रिवर को आगे (कर) वीर हमीर विजय के लिए चला। उसके चलने पर (सेनाके) पैर के बोझ से पृथ्वी काँपने लगी (काँपती है) दिशाओं के मार्ग में, आकाश में अंधेरा छा गया, धूल ने सूर्य के रथ को रोक दिया। दिशाओं में, आकाश में अंधेरा हो गया तथा खुरासान देश के ओल्ला लोग ( पकड़ कर) ले आये गये । हे हम्मीर, तुम विपक्ष का दलमल कर दमन करते दो; तुम्हारा ढोल दिल्ली में बजाया गया।
हिंदी साहित्य में कुंडलिया छंद का प्रथम कवि किसे माना जाए, यह अपने आप में शोध का विषय है।हाँ, इतना अवश्य है कि ‘शिवसिंह सरोज’ नामक ग्रंथ में शिवसिंह सेंगर ने कवियों का जो परिचय उपलब्ध कराया है उसमें कवियों के जीवन चरित्र के अंतर्गत पृष्ठ संख्या 427 पर गोस्वामी तुलसीदास जी (संवत् 1554)की जिन कृतियों का उल्लेख किया है, उसमें एक नाम ‘कुंडलिया रामायण’ भी है। शिवसिंह सरोजकार के अनुसार इस कृति में सात काण्ड थे। विद्वानों का सर्वमान्य मत यह है कि तुलसीदास जी ने 12 ग्रंथों की रचना की थी किंतु शिवसिंह सरोज में उनके 10 अन्य ग्रंथों का भी उल्लेख है। पृष्ठ सं 427 पर वे लिखते हैं कि “केवल जो ग्रंथ हमने देखे, अथवा हमारे पुस्तकालय में हैं, उनका जिकर किया जा रहा है।” किंतु कवि संख्या 256 पर गोस्वामी तुलसीदास के जिन ग्रंथों के उदाहरण पृष्ठ संख्या 120 से 123 तक उद्धृत किए गए हैं उनमें उन ग्रंथों के उदाहरण नहीं दिए गए है जिन अन्य दस ग्रंथों का उल्लेख शिवसिंह सरोजकार ने किया है।शायद इसी बात को ध्यान में रखकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने हिंदी साहित्य का इतिहास’ के पृष्ठ संख्या 144 पर लिखा है कि ‘ पर शिवसिंह सरोज में दस और ग्रंथों के नाम गिनाए गए हैं …….इनमें से कई एक तो मिलते ही नहीं।’ अतः निर्विवादित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने ‘कुंडलिया रामायण’ नामक कोई ग्रंथ लिखा था। न ही हिंदी-साहित्य के किसी इतिहासकार के द्वारा और न ही जनश्रुति से इस बात की पुष्टि होती है कि गोस्वामी जी ने कुंडलिया छंद भी रचे थे। यदि रचे होते तो कोई न कोई कुंडलिया छंद अवश्य जन-मानस का अंग होता।
स्वामी अग्रदास (संवत् 1632), ध्रुवदास (संवत् 1640), गिरिधर ( संवत् 1770),बाबा दीनदयाल गिरि (संवत् 1859), गंगादास (संवत् 1880) और राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ (संवत् 1925) वे नाम हैं जो कुंडलिया छंद का नाम आते ही स्वतः स्मृति पटल पर उभर आते हैं।
‘अग्र ग्रंथावली’ प्रथम खंड में कुंडलियाँ का प्रकाशन महात्मा राजकिशोरी शरण ने अयोध्या से सन् 1935 ई. में किया।इनकी ‘कुंडलियाँ’ में नीति और उपदेश से संबंधित छंद हैं। सन् 1985 में सत्येंद्र प्रकाशन, इलाहाबाद से डाॅ बलभद्र तिवारी जी के संपादन में अग्रदास ग्रंथावली का प्रकाशन हुआ है। अग्रदास जी के कुंडलिया छंदों में पहले दोहे का एक पाद फिर रोला छंद और अंत में फिर दोहे का एक पाद।दोहे के दूसरे चरण का सिंहावलोकन सर्वमान्य और लोकप्रिय नियम की तरह रोले के प्रथम चरण के पूर्वार्द्ध के चरणांश की तरह ही होता है। इनके कुंडलिया छंद जिस शब्द से आरंभ होते हैं उसी शब्द या शब्द-समूह पर समाप्त नहीं होते। परिशिष्ट में अग्रदास जी के छंदों का अवलोकन किया जा सकता है।
ध्रुवदास जी के ‘बयालीस लीला’ ग्रंथ जो कि हित साहित्य प्रकाशन,वृंदावन से प्रकाशित है, में ‘भजन कुंडलिया’ में दस ‘भजनशत’ में एक और प्रेमावली लीला में एक कुंडलिया संग्रहीत हैं। इनके कुंडलिया छंदों में कुछ में दोहा और रोला है तो कुछ में दोहा,आधा रोला और अंत में दोहा है तथा कुछ में दोहा, आधा रोला एवं अंत में उल्लाला छंद है। कुल मिलाकर इनके 12 कुंडलिया छंद हैं तथा सभी छंदों का समापन उसी शब्द या शब्द-समूह से किया गया जो दोहे के आदि में है।
गिरिधर जी के कुण्डलिया छंदों के अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं। जिनमें नवल किशार प्रेस, लखनऊ का ‘कुण्डलियाँ’ सन् 1833 ई., मुक्तफाए प्रेस, लाहौर का ‘कुण्डलिया’ सन् 1874 ई., गुलशने पंजाब प्रेस, रावलपिण्डी का ‘गिरधर कविराय’ सन् 1896 ई., भार्गव बुक डिपो, बनारस का ‘कुण्डलियाँ’ सन 1904 ई., खेमरान श्री कृष्णदास बम्बई का ‘कविराय गिरधर कृत कुण्डलियाँ’ सन् 1953 ई., श्री वेकंटेश्वर प्रेस, बम्बई का ‘कविराय गिरधर कृत कुण्डलियाँ’ सन् 2009 ई., सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली का वियोगी हरि द्वारा सम्पादित ‘गिरधर की सुबोध कुण्डलियाँ’ प्रमुख हैं।
बाबा दीनदयाल गिरि के पाँच ग्रंथों में तीन – वैराग्य दिनेश ( संवत् 1906), अन्योक्ति कल्पद्रुम ( संवत् 1912) और अन्योक्ति माला ( रचनाकाल अज्ञात) ग्रंथों में कुंडलिया छंदों को देखा जा सकता है। संवत् 1976 में श्यामसुन्दर दास जी के संपादन में काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा ‘दीनदयाल गिरि ग्रंथावली’ प्रकाशित हुई है जिसमें आपके पाँचों ग्रंथ उपलब्ध हैं।
महात्मा गंगा दास ने 90 वर्ष की अवधि में लगभग 50 काव्य-ग्रन्थों और अनेक स्फुट निर्गुण पदों और कुंडलिया छंदों की रचना की। इनमें से 45 काव्य ग्रन्थ और लगभग 3000 स्फुट पद प्राप्त हो चुके हैं। इनमें से 25 कथा काव्य और शेष मुक्तक हैं।
राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ के ‘स्वदेशी कुंडल’ नामक ग्रंथ में खड़ीबोली हिंदी में लिखित कुंडलिया छंद हैं। यह ग्रंथ सन 1910 में प्रकाशित हुआ था। श्री नरेशचंद्र चतुर्वेदी जी के संपादन में राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ रचनावली का प्रकाशन 1988 में हुआ था। इसे सचिन प्रकाशन,दरियागंज नई दिल्ली-2 ने प्रकाशित किया था। इसमें पूर्ण जी की’स्वदेशी कुंडल’ कृति भी संकलित है जिसमें 52 कुंडलिया छंद हैं।
आरंभिक काल से लेकर आज तक कुंडलिया छंद के भाव और शिल्प को लेकर अनेक प्रयोग हुए हैं। जहाँ पूर्ववर्ती कवियों ने कुंडलिया छंद में नीति,अध्यात्म और जीवनानुभवों की बात की तो परवर्ती काल में इस छंद ने आम आदमी की पीड़ा को भी इसमें समेट लिया। एक समय ऐसा भी आया जब कुंडलिया छंद का उपयोग विभिन्न कवियों के दोहों के भाव-पल्लवन के लिए किया जाने लगा। यह संभवतः इसलिए हुआ होगा क्योंकि कुंडलिया छंद के शीर्ष में दोहा ही होता है और आगे के रोले वाले चारों पदों में उसी बात को विस्तार दिया जाता है । कबीर दास,रहीम दास, तुलसीदास और बिहारी लाल आदि के दोहों का भाव विस्तार अनेकानेक कवियों के द्वारा किया गया। बिहारी लाल के सुप्रसिद्ध दोहे का भाव पल्लवन भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने कितने खूबसूरत ढंग से किया है ,वह द्रष्टव्य है-

सोहर ओढ़े पीत पट,श्याम सलोने गात।
मनौ नीलमणि शैल पर, आतप परयौ प्रभात।
आतप परयौ प्रभात,किधौं बिजुरी घन लपटी।
जरद चमेली,तरु तमाल,मैं सोभित सपटी।
पिया रूप अनुरूप,जानि हरिचंद विमोहत।
स्याम सलोने गात,पीत पट ओढ़े सोहत।।
आदिकाल से आधुनिक काल तक की कुंडलिया छंद की यात्रा में इसे मध्यकाल में उत्कर्ष प्राप्त हुआ। जब स्वामी अग्रदास,संत गंगादास, बाबा दीनदयाल गिरि, कवि ध्रुवदास, गिरिधर दास, राय देवी प्रसाद पूर्ण प्रभृति कवियों ने कुंडलिया छंद में काव्य रचना कर इस छंद को समृद्ध किया। गिरिधर दास की एक कुंडलिया जो प्रस्तुत है ,जो आम आदमी को जीवन जीने की कला सिखाती है-
बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ।
जो बनि आवै सहज में, ताही में चित देइ॥
ताही में चित देइ, बात जोई बनि आवै।
दुर्जन हंसे न कोइ, चित्त मैं खता न पावै॥
कह ‘गिरिधर कविराय यहै करु मन परतीती।
आगे को सुख समुझि, होइ बीती सो बीती॥
दीनदयाल गिरि की एक कुंडलिया जो किसान को सचेत करती है तथा समय पर कार्य करने की सीख भी प्रदान करती है-
आछी भाति सुधारि कै, खेत किसान बिजोय।
नत पीछे पछतायगो, समै गयो जब खोय।।
समै गयो जब खोय, नहीं फिर खेती ह्वैहै।
लैहै हाकिम पोत, कहा तब ताको दैहै।।
बरनै दीनदयाल, चाल तजि तू अब पाछी।
सोउ न सालि सभालि, बिहंगन तें विधि आछी।।
आधुनिक कुंडलियाकार नीति ,न्याय और अध्यात्म के साथ-साथ भ्रष्टाचार, सामाजिक विषमता और विद्रूपता को भी रूपायित करते हुए दिखाई देते हैं। कथ्य और तथ्य की नव्यता आज के कुंडलिया छंद की एक उल्लेखनीय विशेषता है जो आज के कुंडलियाकारों के छंदों में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।
कुंडलिया छंद के शिल्प को लेकर जो अभिनव प्रयोग हुए हैं उसमें 24 मात्राओं वाले दोहा छंद तथा 24 मात्रिक रोला छंद के चरणों का विन्यास ही पृथक रूप में दिखाई देता है। मूल कुंडलिया छंद की तरह सभी में मुख और पूँछ समान रूप में विद्यमान रहते हैं अर्थात जिस शब्द से छंद का आरंभ होता है,उसी पर समापन भी। समय -समय पर कुंडलिया छंद के शिल्प के साथ विद्वानों द्वारा प्रयोग किए गए हैं तथा उनका नामकरण भी किया गया है।
कुंडलिया छंद के अतिरिक्त ‘नव कुंडलिया छंद’ जिसमें दोहा+आधा रोला+ दोहा का संयोजन होता है।
मोह क्रोध भय दूर कर, जो हो मुझमें लीन।
स्वतः मुक्ति उसको मिली, मुझमें हुआ विलीन।
मुझमें हुआ विलीन, नहीं अंतर रह जाता।
इसको शाश्वत मान, भक्त मुझसा हो जाता।
कहते सत्य बसंत हैं, रहा न कोई द्रोह।
अनुभव कर नर दिव्यता, मिटे क्रोध भय मोह।
– बसंत राम दीक्षित
‘नाग कुंडली’ भी एक अभिनव प्रयोग है। नाग कुंडली में दोहा+ आधा रोला+दोहा+ रोला। इसमें दो बार दोहे का प्रयोग होता है और दोनों बार कुंडलिया छंद की तरह इसमें प्रत्येक दोहे का अंतिम चरण ,रोले के प्रथम चरण के प्रयुक्त होता है। प्रारंभ और समापन समान शब्द पर ही होता है।
तेरी आँखों में छिपे,चितचोर घनश्याम।
चित्त चुराती तू फिरे,निशि दिन आठों याम।।
निशि दिन आठों याम,श्याम घन इनमें सोते।
दर्शन कर भगवान, रूप पर मोहित होते।
तेरी आँखों से लजा,कह राधा मन मार।
मोहन जब तेरे हुए, मैं भी हुई तिहार।।
मैं भी हुई तिहार,चोर हैं आँखें तोरी।
तुझे सौंप निज चित्त,बसे कनु आँखों गोरी।।
बसी चित्त है श्याम,हृदय की दुनिया मेरी।
निशि दिन आठों याम, बसे जो आँखों तेरी।।
-अमर नाथ
अनूप कुंडलिया में तुकान्त सोरठा, आधा रोला और अंत में दोहे का प्रयोग किया जाता है। सोरठा छंद के प्रथम चरण की पुनरावृत्ति अंत में दोहे के चतुर्थ चरण के रूप में होती है।
सुनते हैं अविराम, राम कहानी जो सुजन।
करते काम ललाम,खिल जाते हैं मन सुमन।
रहते नित्य प्रसन्न, मनाते नित्य दीवाली।
पाते शुचि सौगात, न रहती झोली खाली।
एक दिवस आकर उन्हें,दर्शन देते राम।
राम कहानी जो सुजन, सुनते हैं अविराम।।
-डाॅ मिर्जा हसन नासिर
नवकुंडलिया राज छंद भी एक नूतन प्रयोग है। वैसे इस छंद का मात्रिक विधान पूर्णतः भिन्न है। इस छंद में 16,16 मात्राओं के 6 चरण होते हैं। इसमें प्रत्येक चरण के अंत में प्रयुक्त शब्द अगले चरण के आरंभ में प्रयोग किया जाता है। शब्द की पुनरावृत्ति का यह क्रम हर चरण में अंत तक होता है और समापन उसी शब्द पर होता है जिससे छंद को आरंभ किया जाता है।
“इतना वर दो मात शारदे !
मात शारदे , हाथ न फैले
हाथ न फैले , कभी भीख को
कभी भीख को , अब इतना दो
अब इतना दो , दूं जग – भर को
दूं जग – भर को , इतना वर दो।।”
-रमेशराज
कुंडलिया छंद का संक्षिप्त रूप कुंडलिनी छंद है ,जिसमें दोहा + आधा रोला प्रयोग होता है। शेष समस्त विशेषताएँ कुंडलिया छंद की तरह ही है।
जाना हमको एक दिन,तज मिथ्या संसार।
चाहे जितना हम करें,इस दुनिया से प्यार।
इस दुनिया से प्यार ,करो मत बन दीवाना।
यह असार संसार ,तथ्य ये हमने जाना।।
-डाॅ बिपिन पाण्डेय
कुंडलिया के साथ प्रयोग का एक रूप शितिकंठी कुंडलिया भी है। इसमें दोहा और डेढ़ रोला छंद का प्रयोग किया जाता है।
होता पूजित क्षीण शशि , पा जिनका संसर्ग।
अभिनंदन करते सभी , शीश नवाता स्वर्ग।।
शीश नवाता स्वर्ग , यश-स्तव गा-गा करके।
भजनानंद-विभोर भक्त , दृग – मुक्ता झरके।
‘हर-हर बं-बं’ घोष,भाव-विह्वल स्वर भरके।
रचते व्यास पुराण,चरित कह रुचिकर हर के।।
शिव समुपासन मंत्र-जाप सब कल्मष धोता।
अघी अपात्र अधम पूजक भी पूजित होता।।
डाॅ ‘शितिकंठ’
वैसे कुंडलिया छंद के शिल्प को लेकर जो भी प्रयोग किए गए हैं वे साहित्य की आवश्यकता से अधिक कवियों की आचार्यत्व पद की लिप्सा अधिक लगते हैं क्योंकि कोई अभिनव प्रयोग साहित्य में वह स्थान और लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर पाया जो कुंडलिया छंद को मिला।
सम्प्रति कुंडलिया छंद सृजन को लेकर कवियों में एक उत्साह दिखाई देता है। अनेकानेक कुंडलियाकार न केवल कुंडलिया छंद का सृजन कर रहे हैं अपितु उनके कुंडलिया संग्रह भी प्रकाशित हो रहे हैं। आज का कुंडलिया छंद एक नए तेवर में दिखाई देता है। ऐसा कोई भी विषय नहीं है जो कुंडलिया छंद से अछूता हो। नवीन प्रतीक, बिंब और उपमान कुंडलिया के कथ्य को सुग्राह्य और बोधगम्य बनाते है। पिछले कुछ वर्षों में जो कुंडलिया संग्रह प्रकाशित हुए हैं, उनका विवरण निम्नवत है-
कहें कपिल कविराय (कपिल कुमार), कुण्डलिया कुंज ( राम औतार ‘पंकज’), कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर , कुंडलिया कानन और कुंडलिया संचयन ( सं. त्रिलोक सिंह ठकुरेला), काव्यगंधा (त्रिलोक सिंह ठकुरेला), मुझ में संत कबीर (रघुविंद्र यादव), कुण्डलियों का गांव (शिवानंद सिंह ‘सहयोगी’), सम्बंधों की नाव (राम सनेही लाल शर्मा ‘यायावर’), कुण्डलिया संचयन ( सं. त्रिलोक सिंह ठकुरेला), शिष्टाचारी देश में (तोताराम ‘सरस’), अब किसे भारत कहें ( डाॅ. रमाकांत सोनी), कुण्डलिया छंद के नये शिखर ( सं. त्रिलोक सिंह ठकुरेला), संस्कृति के आयाम ( डॉ. जगन्नाथ प्रसाद बघेल), लक्ष्मण की कुंडलियाँ (लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला), मन में भरो उजास (सुभाष मित्तल ‘सत्यम’), कुंडलिया कौमुदी और कहे नलिन हरिदास (डाॅ .नलिन), सुधियों के भुजपास (आचार्य भगवत दुबे ), मुठभेड़ समय से (रामशंकर वर्मा), सरस कुंडलिया सतसई (रुद्र प्रकाश गुप्त ‘सरस’), शब्दों का अनुनाद (डाॅ . बिपिन पाण्डेय), मानक कुण्डलियां ( सं.रघुविंद्र यादव), काक कवि की कुण्डलियां और कविताएँ (रामपाल शर्मा ‘काक ‘), समकालीन कुण्डलिया (सं. डाॅ. बिपिन पाण्डेय), बसंत के फूल (डॉ. रंजना वर्मा), इतनी सी फरियाद (राजपाल सिंह गुलिया ), कुण्डलिया सुमन (इन्द्र बहादुर सिंह ‘इन्द्रेश’), बाबा की कुंडलियाँ, पढ़ें प्रतिदिन कुंडलियाँ, कुंडलिया से प्रीत और कह बाबा कविराय ( बाबा वैद्यनाथ झा), जीवन राग (अशोक कुमार रक्ताले) ,भावों की उर्मियाँ ( शकुन्तला अग्रवाल ‘शकुन’) , अभिनव कुंडलिया ( सं. त्रिलोक सिंह ठकुरेला) इक्कीसवीं सदी की कुंडलियाँ (सं. डाॅ बिपिन पाण्डेय), समकालीन कुंडलिया शतक ( सं. त्रिलोक सिंह ठकुरेला) , मंथन का निष्कर्ष ( डाॅ बिपिनपाण्डेय) आदि।
इसके अतिरिक्त अन्यान्य कुंडलियाकार हैं जिन्होंने प्रचुर मात्रा में कुंडलिया छंद सृजित किए हैं और आज भी कुंडलिया- कोष को समृद्ध करने में लगे हुए हैं। हरिओम श्रीवास्तव, रविकांत श्रीवास्तव, श्लेष चंद्राकर, नीलमणि दुबे, पुष्प लता, नीता अवस्थी, नवनीत राय रुचिर ,शिवकुमार ‘दीपक’ रामेश्वर गुप्ता,अमित साहू आदि ऐसे ही कुंडलियाकारों के नाम हैं।
समय के साथ सामाजिक जरूरतों को अपने में समाहित कर समाज को एक सकारात्मक दिशा एवं सोच देना साहित्य का प्रमुख उद्देश्य होता है और कुंडलिया छंद अपने उद्देश्य में पूर्णतः सफल रहा है। उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कुंडलिया छंद अपनी विकास यात्रा में भाव एवं शिल्पगत परिवर्तन के अनेक पड़ाव देखे हैं। कथ्य एवं भावगत परिवर्तन की यह क्षमता ही इस छंद को आज भी लोकप्रिय बनाए हुए है।
डाॅ बिपिन पाण्डेय

Language: Hindi
Tag: लेख
3 Likes · 10 Comments · 1715 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
भोले बाबा की महिमा भजन अरविंद भारद्वाज
भोले बाबा की महिमा भजन अरविंद भारद्वाज
अरविंद भारद्वाज
जब स्वयं के तन पर घाव ना हो, दर्द समझ नहीं आएगा।
जब स्वयं के तन पर घाव ना हो, दर्द समझ नहीं आएगा।
Manisha Manjari
गरीबी तमाशा
गरीबी तमाशा
Dr fauzia Naseem shad
मैं तो हमेशा बस मुस्कुरा के चलता हूॅ॑
मैं तो हमेशा बस मुस्कुरा के चलता हूॅ॑
VINOD CHAUHAN
🥀 *गुरु चरणों की धूल*🥀
🥀 *गुरु चरणों की धूल*🥀
जूनियर झनक कैलाश अज्ञानी झाँसी
"तर्पण"
Shashi kala vyas
2881.*पूर्णिका*
2881.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
जल रहे अज्ञान बनकर, कहेें मैं शुभ सीख हूँ
जल रहे अज्ञान बनकर, कहेें मैं शुभ सीख हूँ
Pt. Brajesh Kumar Nayak / पं बृजेश कुमार नायक
सांझ सुहानी मोती गार्डन की
सांझ सुहानी मोती गार्डन की
ओमप्रकाश भारती *ओम्*
नव वर्ष की बधाई -2024
नव वर्ष की बधाई -2024
Raju Gajbhiye
बेवक्त बारिश होने से ..
बेवक्त बारिश होने से ..
Keshav kishor Kumar
आवाज़
आवाज़
Dipak Kumar "Girja"
सुनो पहाड़ की....!!! (भाग - १)
सुनो पहाड़ की....!!! (भाग - १)
Kanchan Khanna
शिक्षक सम्मान में क्या खेल चला
शिक्षक सम्मान में क्या खेल चला
gurudeenverma198
पीछे तो उसके जमाना पड़ा था, गैरों सगों का तो कुनबा खड़ा था।
पीछे तो उसके जमाना पड़ा था, गैरों सगों का तो कुनबा खड़ा था।
Sanjay ' शून्य'
आज कृष्ण जन्माष्टमी, मोदभरे सब लोग।
आज कृष्ण जन्माष्टमी, मोदभरे सब लोग।
डॉ.सीमा अग्रवाल
वो मुझे अपना पहला प्रेम बताती है।
वो मुझे अपना पहला प्रेम बताती है।
पूर्वार्थ
हमेशा कोई जगह खाली नहीं रहती,
हमेशा कोई जगह खाली नहीं रहती,
Manju sagar
विनाश नहीं करती जिन्दगी की सकारात्मकता
विनाश नहीं करती जिन्दगी की सकारात्मकता
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
" नाराज़गी " ग़ज़ल
Dr. Asha Kumar Rastogi M.D.(Medicine),DTCD
*गठरी धन की फेंक मुसाफिर, चलने की तैयारी है 【हिंदी गजल/गीतिक
*गठरी धन की फेंक मुसाफिर, चलने की तैयारी है 【हिंदी गजल/गीतिक
Ravi Prakash
ग़ज़ल : पेट में दाना नहीं
ग़ज़ल : पेट में दाना नहीं
Nakul Kumar
तू जब भी साथ होती है तो मेरा ध्यान लगता है
तू जब भी साथ होती है तो मेरा ध्यान लगता है
Johnny Ahmed 'क़ैस'
SHER
SHER
*प्रणय*
वापस आना वीर
वापस आना वीर
लक्ष्मी सिंह
साधना की मन सुहानी भोर से
साधना की मन सुहानी भोर से
OM PRAKASH MEENA
रामलला
रामलला
Saraswati Bajpai
बहुत  ही  खूब सूरत वो , घर्रौंदे  याद आते है !
बहुत ही खूब सूरत वो , घर्रौंदे याद आते है !
Neelofar Khan
उलझ गई है दुनियां सारी
उलझ गई है दुनियां सारी
Sonam Puneet Dubey
"एक शेर"
Dr. Kishan tandon kranti
Loading...