कुंडलियाँ छंद
कुंडलियाँ —
दोहा –रोला
आया मौसम प्यार का, बदले रूप हजार।
प्रेम भरी तकरार की, ठंडी चले फुहार ।।
ठंडी चले फुहार, याद है तेरी आती।
जलता कैसे दीप, तैल है और न बाती।
‘पाखी’ यूँ मत रूठ, विरह ने बहुत सताया ।
लेकर रूप हजार, प्यार का मौसम आया।।1
आगे आगे तुम चलो , ज्यों कलि के सँग पात ।
बातों बातों में कहीं ,बीत न जाए रात।।
बीत न जाए रात,बात प्यारी सी कर लो !
प्यार नहीं है खेल, दृगों में सपने भर लो ।।
ये देखो तुम आज,समय सरपट है भागे ।
पाखी गुजरी रात,चलो साथी तुम आगे ।।2
जाना मर्म कभी नहीं,होती क्या है जात।
बड़े बुजुर्गों ने सदा, बतलाई यह बात।।
बतलाई यह बात,तथ्य पर सभी छिपाते।
बात कहाँ आसान,नहीं खुल कर समझाते।
रहना पाखी दूर,यही मन अब है माना ।
जात-पात को भूल, हृदय ने यह है जाना ।।3
होगा गीता ज्ञान तब, बदलेगा संसार।
बिना ज्ञान के कुछ नहीं,करता अंगीकार।।
करता अंगीकार,यही अर्जुन को बोला।
दिया वही उपदेश, कृष्ण ने था जो तोला ।।
पाखी ले पहिचान ,सभी ने यह दुख भोगा ।
यह है गीता ज्ञान ,सीखना सबको होगा।।4
अंकुश लगता है तभी, बढ़ती जब उर आस।
हृदय निरंकुश हो गया,उरतल रावण वास।।
उरतल रावण वास,छोड़ दो सब वो माया
कहता गीता ग्रंथ, पाप ने सदा लुभाया ।।
पाखी लिख समझाय, न मन हो कभी निरंकुश ।
रखे महावत शीश ,सदा हाथी के अंकुश।।5
मानव मन कब मानता, माना है अवधूत।
शंकर औघड रूप धर, मलते अंग भभूत ।।
मलते अंग भभूत,दर्श भैरव का होता।
काया निखरे रूप,भस्म से तन जब धोता।।
पाखी बनी अजान,कहे रघु को क्यों राघव
है चिरजीवी कौन, सदा खुश रहता मानव।।6
रखना बहुत सँभाल के, बतलाती जो राज।
परिणति केवल बिछड़ना,यही बताना आज।।
यही बताना आज,धरा मैं रेगिस्तानी।
तुम सागर का नीर, रही मैं बूँद समानी ।।
बहे तटीय समीर,स्वाद क्यों तुमको चखना।
आतुरता अभिसार , हृदय में संयम रखना ।। 7
स्वरचित मौलिक सृजन
मनोरमा जैन पाखी
मेहगाँव ,जिला भिंड ,मध्य प्रेश