” किस्सा पहली यात्रा का “
यात्रा वृतांत ( संस्मरण )
” किस्सा पहली यात्रा का ”
सन 1984 ” बसंत महिला महाविद्यालय , राजघाट ,वाराणसी ” ( जे० कृष्णमूर्ती जी का प्रथम फाउंडेशन ) में मैं कक्षा ग्यारह की छात्रा थी कॉलेज से टूर ले जाया जा रहा था पूरी कक्षा में से मैं और मेरी दोस्त श्रद्धा ही जा रहे थे बाकी अठ्ठावन सीनियर छात्राएं , छ: अध्यापिकाएं , एक महाराज और तीन हेल्पर…बड़े ही राजसी ठाठ बाट के साथ विधिवत यात्रा की तैयारी थी हॉस्टल से रास्ते के लिए लड्डू , मठरी , नमकीन , ब्रैड – मख्खन – जैम सब हमारी पेट पूजा के लिए साथ चल रहा था चूंकि हम ज्यादातर लड़कियाँ डे स्कालर थीं तो घर का लज़ीज़ खाना भी हमारे साथ था हाँ चलने से पहले हमें एक नोटिस दिया गया था जिसमें सबको लोहे का ट्रंक और गद्दा साथ लाने को बोला गया था सारी लड़कियाँ नोटिस पढ़ कर भौचक थीं की ये क्या अब हम पुराने ज़माने की तरह लोहे का ट्रंक लेकर चलेंगे ? सबको गुस्सा आ रहा था लेकिन जब हम स्टेशन पहुँचे तो हमारे लिए पूरी एक बोगी बुक थी सबके ट्रंक दोनों सीटों के बीच में रख दिया गया और उन पर गद्दे बिछाने का फरमान जारी हुआ , सबने फटाफट गद्दे चादर बिछा दिया और एक दूसरे का मुँह देखा और खुश हो कर जोर से हँसे और बोल पड़े ” अच्छा तो ये राज़ था ” ।
बनारस से सिलीगुड़ी तक का सफर बड़े ही आराम से कटा खाते – पीते , गाते – हँसते बस हमारी ट्रेन छ: घंटे लेट हो गई थी सिलीगुड़ी पहुँचते ही दो बसें हमारा इंतजार कर रही थीं , समान रखते – रखाते शाम के तीन बज गये वहाँ से शुरू हुआ हमारा दार्जलिंग का सफर मेरा पहला अनुभव था पहाड़ी रास्तों पे जाने का हम उपर की तरफ जा रहे थे जैसे ही सामने से कोई बस आती हमारी बस किनारे की तरफ हो जाती मैं कस कर बस की खिड़की को जोर से पकड़ लेती की जैसे मेरे खिड़की पकड़ने से ही बस सही सलामत है , कहते हैं ना की जब देर होती है तो और देर पर देर होती जाती है हमको दार्जलिंग पहुँचते रात के आठ बज गये हमारा ठहरने का इंतजाम ” सेंट पॉल कॉनवेंट स्कूल ” में था लेकिन हम वहाँ नही जा सके क्योंकि वो और ऊँचाई पर था देर बहुत हो चुकी थी सब थक कर चूर थे और पेट में दौड़ते चूहों से परेशान उपर से कड़कड़ाती ठ़ंड से सबके दाँत बज रहे थे…दीदी ( राजघाट में अध्यापिका को इसी संबोधन से बुलाते थे ) लोगों ने पास के ही एक होटल में रूकने का फैसला किया होटल थोड़े ढलान पर था सबके सब कमरों मे पहुँचे तो लग रहा था जम ही जायेंगे , सब थके थे सबने बोला की जो नाश्ता साथ आया है वही खा कर सो जाते हैं लेकिन महाराज जी नही माने होटल के बाहर बहुत बड़ी खाली जगह थी वहाँ उन्होंने लकड़ी का चूल्हा जला कर चाय चढ़ा दी हम सब बारी – बारी से आग के अगल बगल खड़े होकर खुद को गरम कर रहे थे और ब्रैड पर जैम – मख्खन लगा रहे थे मख्खन तो जैसे फ्रिजर से निकला था खैर पेट के चूहों को आराम दें हम घुस गये बिस्तर में और घुसते ही करंट लग गया लगा जैसे बर्फ पे लेट गये हों…. लाईट नही थी हीटर चल नही सकता था मैं तो अपने स्लीपिंग बैग में घुस गई किसी तरह नींद आई । सुबह चार बजे उठ कर जल्दी से फ्रैश होकर ( लाईट आ गई थी मुझे एक बाल्टी गरम मिल गया था ) नहा कर सबसे जल्दी तैयार हो गई एक घंटे में ” टाइगर हिल ” के लिए निकलना था , जल्दी करो…जल्द करो का हल्ला मचने लगा मैं आराम से चाय के मज़े ले रही थी…बिटिया तुम तो सबसे जल्दी तैयार हो गई महाराज जी बोले…कहाँ महाराज जी मुझसे पहले तो आप तैयार होकर हमें चाय पिला रहे हैं महाराज जी खिलखिला पड़े । हम टाइगर हिल समय से थोड़ा पहले पहुँच गये थे शुक्र था ” सन राइज़ ” हमसे छूटा नही था सबके सब नज़रे गड़ाये एकटक देखे जा रहे थे कभी सामने तो कभी पीछे कंजनजंघा की पहाड़ियों को सूर्य भगवान अपने पदार्पण से पहले इंद्रधनुषी सात रंग से कंचनजंघा की पहाड़ियों को रंगते हैं कोई भी रंग मुझसे छूटा नही उनके आने का आभास तेज हो गया जब दो पहाड़ियों के बीच में तेज रौशनी उत्पन्न हुई और जैसे किसी ने नारंगी को पकड़ कर रखा था और अचानक से छोड़ दिया फुर्र से उपर आकर मुस्कुरा दिये…इतनी जल्दी सब हो गया की दो मिनट लगे विश्वास करने में फिर लगा की मैने दुनिया का सबसे खूबसूरत सूर्योदय देख लिया था गर्व हो रहा था खुद पर ।
वहाँ से वापस लौट कर महाराज जी ने गरम – गरम तेहरी बनाई सबने खूब छक कर खाया और चल दिये अपने अगले गंतव्य ” गंगटोक की ओर शाम हो गई पहुँचते – पहुँचते यहाँ हम एक मोनेस्ट्री में रूके उसका विशाल प्रांगण बड़े – बड़े हॉल गद्दो पर बीछी सफेद चादरे जैसे हमारा ही इंतज़ार कर रहीं थी हम भी तरोताज़ा होकर इंतज़ार को खतम करते हुये पसर गये , रात के खाने का इंतजाम मंदिर की तरफ से था सो सब मिल कर दीदी लोगों के साथ गप्प मारने लगे ।
दुसरे दिन सुबह हम ” केक्टस नर्सरी ” गये वाह ! क्या नर्सरी थी गजब का कलैक्शन था मन खुश हो गया , वहाँ से ” हमें थोड़ी शॉपिंग करनी है ” दीदी लोगों को बोल कर चल दिये चाइनिस खाने ( मेरी तीन सीनीयर्स मैं और श्रद्धा हमने पहले से प्लान बना लिया था ) क्या चाइनिस था आज भी ज़बान पर स्वाद मौजूद है , वापस आये तो देखा महाराज जी ने पूरा खाना दाल , चावल , रोटी , सब्जी , सलाद और पापड़ बना रखा था सब लड़कियाँ खाने में व्यस्त थीं हमें देखते ही महाराज जी बोल पड़े अरे ! बिटिया लोग जल्दी आइये भूख लगी होगी गरम – गरम खाना तैयार है ” हमें काटो तो खून नही ” लेकिन हम महाराज जी को ये कह कर मायूस नही कर सकते थे की हमें भूख नही है हम पाँचों ने फिर से खाना खाया…खाना बहुत स्वादिष्ट था महाराज जी खुश थे और हम भी । फिर हम निकल लिए कलिम्पोंग की ओर यहाँ भी पहुँचते रात हो गई , होटल का बड़ा सा हाल बिस्तर तैयार खाना खा सब निंद्रा देवी की गोद में समा गये…सुबह तैयार होकर हम ” थरपा चोलिंग मोनेस्ट्री ” और ” फ्लावर नर्सरी ” गये खाना बाहर रेस्टोरेंट में खाया वो भी साउथ इंडियन , खाने के बाद शॉपिंग की बैम्बू से बने समान लिए शाम होते – होते वापस रात का खाना होटेल में खाना था हमारे पास तब तक बहुत वक्त था सबने अपने अनुभव साझा किये गाना गाया खाना खाया सोये सुबह उठे और वापस सिलीगुड़ी , हमारा कोच वहीं खड़ा था वापस लौटते समय पटना में लड़कियों के परिवार वालों ने प्यार से भरकर दही चूड़ाऔर गुड़ दिया सबने आनंद ले ले कर खाया…बनारस पहुँच कर सब कभी ना भुलने वाली मिठाई से भी मीठी यादें लेकर अपने घर को चल दिये ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा )