किस्सा कवि होने का
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किसी ने कहा कविता लिखो
लिख दिया मैंने।
अपरिपक्वता की कविता
हो गयी परिपक्व।
छप गई।
मुझे कविता के पृष्ठ पर छाप गया।
कविता में राजतंत्र है।
कवि कथा से हो न हो राजनीति से
समृद्ध हो अवश्य।
समृद्धि चाटुकारिता की हो तो,
सोने में सुहागा।
संपादक उसे ये ले भागा वो ले भागा।
दरिद्र कवि जानता है सिर्फ कविता करना।
संध्या और दिवस के मिलन विंदु,
निशा और उषा के मिलन विंदु तक
एक ऋजु रेखा है।
व्यक्तित्व को दो संदर्भों में देती है बाँट।
मैं जब संदर्भों का व्यावहारिक विश्लेषण
चाहता हूँ करना,
निरर्थक शब्द देते हैं मुझे डांट।
मेरे चिथड़े हुए ओठों पर सार्थक कविता
संपादकों के रद्दी वाली पेटी में
जीता है।
मैं कवि बचा रहता हूँ।
कविता लिखकर देवताओं से चाहता हूँ वरदान।
राक्षसों से मांगता हूँ
अन्याय होते भी जी सकने योग्य प्राण।
काँटों सी कुटिल प्रहार और
पुष्पों सा कोमल छल
मेरे अंदर जब जाते है दिये बो
मुश्किल होता है बिना रूआँसा हुआ जीना।
कवि के जले हुए ओठ लगते हैं गाने गाना।
बिना गर्भ ठहरे पैदा होता है कवि।
तुरत-फुरत बिलकुल अभी।
जंगली पहाड़ों पर भगा दिये जाने से
जलीय सागर के सारे गर्त देख लेता है कवि।
अधर पर शिव के विषपान से छलका हुआ विष।
आ ठहरता है।
आलोचनाओं से भरे मुहावरे
चीखकर कहने के बजाय बस कुहरता है।
मरने के पूर्व तक मैं, मेरे लिए कवि ही रहूँगा।
दूसरे मुझे समझते रहेंगे फालतू आदमी।
—————-2/11/21——————————