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19 Jan 2019 · 1 min read

किस्मत के आगे खुद को ही, झुकते देख रही हूँ मैं

किस्मत के आगे खुद को ही, झुकते देख रही हूँ मैं
हार समय से बस हाथों को, मलते देख रही हूँ मैं

खून पसीने से सींचे थे, खड़े किये थे कुछ सपने
फसल देख कर हरी भरी पर,जले भुने केवल अपने
अपनों को ही यहां पराया, बनते देख रही हूँ मैं

परिवारों की बंजर धरती,में अब फूल उगें कैसे
रिश्तों की सौंधी खुशबू से,
भी उपवन महकें कैसे
स्वार्थ बेल ही यहाँ दिलों में, उगते देख रही हूँ मैं

रोज रोज उगता है सूरज, लेकिन जब भी थक जाता कभी बादलों में या कोहरे, में चुपचाप दुबक जाता
धूप छाँव इसको जीवन में, भरते देख रही हूँ मैं

जीवन के हर पथ पर रक्खे , फूँक फूँक कर सदा कदम
उम्र बिता दी जाने कितनी, देख गुजरते ये मौसम
पतझड़ के पत्तों सी खुद को, झड़ते देख रही हूँ मैं

19-01-2019
डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद

Language: Hindi
Tag: गीत
1 Like · 308 Views
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