किसे आवाज दूँ
अपनी ही आवाज वापस
कानों में गूँजती मिली,
अपने ही स्वप्न मुझे सोते मिले
शब्द कहीं रेगिस्तानी घाटी में
बदहवास भटकते दिखे
इस अनंत रहस्य व्योम में क्या तलाशूं,
अपनी छाती की तहों तक,
मुझे अपने जीवन के
रहस्य न मिल सके।
किसे आवाज दूँ मैं
कहाँ अपने आप को तलाशूँ
अभी न जाने कितना लम्बा सफर है
कभी तो मुखर हो,
ओ मेरे पीड़ित स्वर!
कहीं तो मुझे अपनी कराह मिले
पल पल के परिवर्तन ने डराया
भय क्रोध आकांक्षाओं ने मुझे हराया
हाय! अपने ही मानस पुष्प में मुझे
पराग कण बीज न मिले
कौन बिछड़ गया
न जाने किसे ढूँढता हूं
जाने इस विराट शून्य में
क्या-क्या पाकर खो जाना है
किससे यह अब पूछूँ मैं क्यों मुझे
हर कली पंखुड़ी नोंचती मिली
अपनी ही आवाज मुझे
अपने कानों में गूँजती मिली।
-✍श्रीधर.