किताब
किताब (१० मुक्तक)
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लड़ाई-झगड़ा तुम छोड़ो अब।
किताब से नाता , जोड़ो अब।
हर-पल देगा , तुम्हें यह काम;
जल्दी से पढ़ाई कर लो अब।
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पढ़ो तुम भी , कभी किताब।
कितना पढ़े, कर लो हिसाब।
सुंदर -डगर , चुनना है अगर;
मत करो, खुद समय खराब।
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……………….३………………..
किताब में होते हैं , पन्ने कई।
सब में मिलते, बातें नई-नई।
पिरोये रहते , सब एक साथ;
तभी पाठकों के हाथ ये गई।
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………………४………………..
कहलाता यही है , ‘पुस्तक’।
देता यही, ज्ञान की दस्तक।
रखो, इसको पास तुम सदा;
दूर रहोगे,आखिर कब तक।
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……………….५…………………
सुंदर होती, इसकी लिखावट।
चकोर होती , इसकी बनावट।
लेखक सदा , ही विद्वान होते;
करते इसमें, अच्छी सजावट।
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……………….६………………..
इसके मिलते हैं , कई प्रकार।
कुछ अच्छे होते,कुछ बेकार।
चुनो तुम,सिर्फ ऐसी किताबें;
जिसमें मिले कई ही संस्कार।
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……………….७…………………
रचित होती, कई भाषाओं में।
लेखक की,छुपी आशाओं में।
सदा, कई ज्ञान को समेटे यह;
मिलता यह हरेक दिशाओं में।
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………………..९…………………
छुपी रहती , इसमें कई ज्ञान।
सब करते हैं , इसका सम्मान।
ध्यान से पढ़ो सब इसको अब;
जानकार बनो, तुम भी महान।
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………………..१०…………………
हर धर्म-ग्रंथ को भी, समेटे यही।
हर नियम कानून को,लपेटे यही।
ज्ञान विज्ञान का है, यही आधार;
जो इसे दोस्त बनाये, जीते वही।
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स्वरचित सह मौलिक;
……✍️पंकज ‘कर्ण’
………….कटिहार।।
तिथि: २९/९/२०२१