किताबी दोस्ती
मैं अक्सर बेहतर तलाश कर ही लेती हूँ, इन किताबों की भीड़ में! एक बेहतर किताब को अपना दोस्त बना ही लेती हूँ ।
हाँ… मेरा कोई दोस्त नहीं ।पर
इनसे बेहतर कोई इतना करीब भी नहीं । और कभी-कभी तो किसी किताब के कवर को निहारते हुए कुछ पन्ने, यूं ही शब्द, पढ़ लेती हूँ, और ये बात पता होते हुए भी कि ये मुझे अपनी ओर खींच लेंगे । इसमें कुछ गलती मेरी है तो कुछ किताबों की भी l मैं उससे जुदा नहीं होना चाहती और वो मेरे हाथो में रहने की ज़िद करती हैं । हाँ ……सच्ची किताबें भी ऐसा करती है, एक अच्छे दोस्त की तरह सच्ची दोस्ती निभाती है और हमेशा अच्छी सलाह भी देती है l मेरे इनसे मिलने की कुछ ही चुनिंदा जगह हुआ करती है, जहाँ इनसे बातें करना बहुत ही अच्छा लगता है –
बालकनी में आराम कुर्सी पर बैठ एक हाथ में कॉफी और दूजे हाथ में इसे पकड़कर इससे रूबरू होना ।
या तब, जब कभी आसमान द्वारा सूरज की किरणों को अपने वश में कर लिया जाता है और मौसम को एक नया रूप दे दिया जाता है जिसमें गीली मिट्टी की महक हो और फिज़ाओं में गुनगुनी हवा की लहर l तब कभी चली जाती हूँ घर की छत पर उस झूले पर बैठकर इनसे रूबरू होने l और पता है, ये वही झूला है जो पहले हवा के झोकों से हिलने पर चूं चूं की आवाजें किया करता है , पर इस आवाज से भी मुझे कभी परेशानी नहीं हुई इन किताबों को पढ़ने में । अक्सर ऐसे मौसम में आकर यहाँ किताबों के साथ गुफ्तगू करना बड़ा सुकून देता है ।
कमरे में रखी बुक शेल्फ पर ढेरों किताबे मुझे रोज़ ताकती है , कभी किसी एक को छूती हूँ तो मानो ऐसा लगता है कि बाकी किताबें नाराज़ हो गई हों ।
मेरी ड्रेसों से भी ज्यादा किताबें है मेरे पास , मां अक्सर डाँट देती है मुझे, जब कभी उनके साथ बाजार जाती हूँ, सब्जी खरीदने ,तो “माँ , मैं अभी आती हूँ”,कहकर, पास उस नीम के पेड़ के पीछे बुक स्टोर पर चली जाती हूँ और जल्दी से कोई एक किताब खरीद ले आती हूँ, जब घर जाकर थैले में से सब्जियों के साथ किताब निकलती है , फिर क्या , फिर दोनों को डाँट पड़ती है , मुझे और एक मेरी दोस्त इस किताब को ।
माँ का चिल्लाना भी लाजमी है , ना घर से बाहर कहीं जाती हूँ और ना अपने कमरे से । दिन भर कभी इस किताब से गपशप की तो कभी उससे कुछ बातचीत और ऐसे ही में अपना टाइम निकाल देती हूँ । पढ़ना अच्छा लगता है मुझे । खुद में व्यस्त रहना अब आदत सी बन गई है मेरी।
ऐसी ही रहती हूं में जैसी दिखती नहीं हूं में….।