कितने रावण दहन करूँ
द्वेष,कपट,अन्याय,क्रूरता पग-पग कैसे हवन करूँ
रोज़ नया है एक जन्मता, कितने रावण दहन करूँ
हाथ किसी के राजदण्ड है, न्यायपीठ पर कोई है
बेटों को पड़ते हैं कोड़े, भारत माता रोई है
लोकतंत्र उल्टा लटका है, कैसे इसको नमन करूँ
रोज़ नया है एक जन्मता, कितने रावण दहन करूँ
ग्रामदेवता स्वप्नव्यूह में आकर खुद को मार रहे
ऋण के पसरे द्यूत-जाल में अपना जीवन हार रहे
कितने बच्चे भूखे सोये, कैसे मैं आचमन करूँ
रोज़ नया है एक जन्मता, कितने रावण दहन करूँ
दुःशासन के अट्टहास से धरती-नभ थर्राते हैं
द्रुपदसुताओं की पुकार पर कृष्ण कहाँ अब आते हैं
तार-तार होती मर्यादा देखूँ, कैसे सहन करूँ
रोज़ नया है एक जन्मता, कितने रावण दहन करूँ
मायामृग, उत्कोच बना है, पीछे राम बुलाने को
मन सीता सा मचल उठा है, दुर्लभ आशा पाने को
दुःख ताड़का-सुबाहु बने हैं, कैसे इनका शमन करूँ
रोज़ नया है एक जन्मता, कितने रावण दहन करूँ
सुख अशोक वाटिका में पड़ा, बन्धक हुआ दशानन का
मैं ‘असीम’ यायावर ठहरा जीवन के दण्डक वन का
राजनीति सोने की लंका, कैसे इसका वहन करूँ
रोज़ नया है एक जन्मता, कितने रावण दहन करूँ
© शैलेन्द्र ‘असीम’