कितना कुछ सहती है
कितना कुछ सहती है
फिर भी चुप रहती है,,
अपनी हीं छाती पर
अपने हीं बच्चों का
पाँव-बोझ सहती है
जननि होकर हीं
तो जाना है
मैंने
धरा की पीड़ा,
पृथ्वी का दुःख।
कितना कुछ सहती है
फिर भी चुप रहती है,,
अपनी हीं छाती पर
अपने हीं बच्चों का
पाँव-बोझ सहती है
जननि होकर हीं
तो जाना है
मैंने
धरा की पीड़ा,
पृथ्वी का दुःख।