काश
वो माँग रहा था कुछ
हाथ फैला कर
मुंह फेर लिया तुमने भी
द्वितीय ईश्वर हो कर
उलझ कर रह गई इच्छाएं
रेशमी रिबन के साँप के जैसी
उसके झोली मैं थी
एक शून्यता और
भुख एक मुठ्ठी
झोली के भीतर
हाथ डाल दिया उसने
झूठी कोशिश, निकालने की
कुछ मुहूर्त, भूख से तड़पते
उसके बेटे का विलाप
झांकती हुई मजबूरी,
उसकी स्त्री के
उन्मुक्त स्तन,फटी हुई साड़ी से
काश! मैं होता एक रुपया
होता उसके झोली में
महसूस करता वो शुन्यता
अंधेरे के भारीपन में
किंतु मैं था मेरे अंदर
और थी उसकी झोली में
केवल एक शून्यता और
भुख एक मुठ्ठी, भुख एक मुठ्ठी |
पारमिता षड़ंगी।