काश..! मैं भी एक अध्यापक होता।
आज जिला कलेक्टर की अध्यक्षता में आयोजित एक मीटिंग में शामिल होने की गरज से मैंने अपने आप को बेहतरीन कपड़ों से सजाया और साथ ही अपनी कनपटी के सफेद बालों में शैंपू करके अपने आत्मविश्वास को परखते हुए अपनी टू व्हीलर स्टार्ट की और अपनी ऑफिस के लिए रवाना हुआ। देर रात तक मीटिंग की तैयारी करने से आंखें लाल होकर चल रही थी और चेहरे पर भययुक्त तनाव भी था कि पता नहीं कब भरी मीटिंग में कलेक्टर साहब मुझे डांट ना ले।
ऐसा नहीं कि चेहरे पर तनाव की रेखाएं आज ही दिख रही हो अक्सर रोज ही का यह आलम था। अपनी बेहतरीन प्रयासों के बावजूद बॉस शायद ही कभी खुश हुए हों। ऑफिस में ढेर सारे लोगों की अपेक्षाएं मुझे कभी भी चैन से बैठने नहीं देती थी।
और दूसरी ओर श्री कामताप्रसाद जी जो मिडिल स्कूल में आज हेड मास्टर हैं। अल सुबह ही उनके घर से ट्यूशन के बच्चों की आवाजें सुनाई देने लग जाती थी। अपने घर की ऊपर वाली मंजिल पर एक बड़ा हॉल उन्होंने बनाया भी तो इसी वजह से था कि एक्स्ट्रा ट्यूशन क्लास लेकर धनोपार्जन किया जाए। इसमें बुराई जैसी कोई बात नहीं थी, लेकिन पता नहीं क्यों मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता था। कामताप्रसाद जी अक्सर कहा करते थे कि वे लोग मूर्ख होते हैं जो अपने घर का खाना खाते हैं और गली के नुक्कड़ पर खड़े होकर देश चिंता में घुलते रहते हैं। गली के नुक्कड़ पर नाकामता प्रसाद जी कभी नजर आए और ना ही मैं। हम दोनों की अपनी-अपनी मजबूरियां थी वे धन जोड़ने में लगे थे और मैं अपनी नौकरी बचाने में।
हालांकि कामताप्रसाद जी और मैं, दोनों ने एक ही साथ बी.ए. करके अपने अपने करियर बनाने के लिए प्रयास करने लग गए थे। इसमें पहली सफलता मुझे ही मिली । स्थानीय तहसील में मुझे एक बाबू की नौकरी मिल गई और उन्हें लगभग 1 साल बाद सरकारी अध्यापक की ट्रेनिंग के लिए दाखिला मिला।
मैं अपनी नौकरी में व्यस्त होता गया। ऑफिस की बढ़ती जिम्मेदारियों के साथ साथ मेरे चश्मे के नंबर भी बढ़ते गए। सभी अवकाश के दिन मेरे सामने ही उनको बतियाते हुए आनंद करते हुए देखकर मैं अक्सर कुढ़ जाता था और कभी-कभी उनके भाग्य पर ईर्ष्या भी करने लग जाता था। खैर, कामताप्रसाद जी की अध्यापक ट्रेनिंग पूरी हुई और ट्रेनिंग के 3 महीने बाद ही वैकेंसी निकली और पास ही के मिडिल स्कूल में नौकरी भी लग गई।
आज हम दोनों की नौकरी को लगे लगभग 12 साल बीत चुके हैं। हम दोनों आज भी एक ही हाउसिंग बोर्ड के अपने अपने मकानों में रहते हैं, लेकिन हमारे मकान की दशाएं और हमारे चेहरे की रेखाएं दोनों में जो फर्क है वे बड़े आसानी से नजर आते हैं। वे हमेशा अलमश्त होकर हंसी ठिठोली करते हुए दिख जाते हैं और मैं अपने चेहरे पर एक अनचाही उदासी और गंभीरता ओढ़े रखता हूं, मानो पूरे देश की जिम्मेदारी मुझ पर ही हो। मैं आज भी 650 वर्ग फीट के एक मंजिला मकान में रह रहा हूं, जिसकी दीवारों का प्लस्तर उखड़ने लग गया है । धन और समय दोनों की मेरे पास कमी होने से मैं चाह कर भी उसे मरम्मत नहीं करवा पा रहा हूं।
और दूसरी तरफ वे अपने उसी मकान पर दो मंजिलें चढ़ा चुके हैं और उनके घर के बाहर एक नई गाड़ी भी खड़ी रहती है, जिसे उन्होंने इसी दिवाली पर खरीदा और पूरे मोहल्ले में मिठाई बांटी थी।
गत चुनाव में भी मेरी ड्यूटी चुनाव अनुभाग में लग जाने से बिना किसी अवकाश का उपभोग किए पूरे 4 महीने तक देर रात तक मैं अपने घर आता और साथ ही अपने कार्यालय के सारे काम की जिम्मेदारी भी मैंने पूरी की।और चुनाव संपन्न होने पर मुझे 1700 रुपए अतिरिक्त मिले, जबकि कामताप्रसाद जी ने 3 दिन ड्यूटी देकर ₹2900 प्राप्त कर लिए।
मोहल्ले वालों की नजर में अध्यापक होने के नाते उनका ज्यादा सम्मान किया जाता है और उनकी ऊंची आवाज भी सभी बर्दाश्त करते हैं, जबकि मेरी औकात एक बाबू की है सो मेरी कौन परवाह करेगा। एक बार एक अन्य पड़ोसी, जो अपनी नई जमीन की रजिस्ट्री कराने के लिए मेरे दफ्तर में आए आए और बोले- चौधरी जी! पहली बार काम पड़ा है आप के दफ्तर में ।आप अपनी पहचान से जल्दी पूरा करवा देना जो भी एक्स्ट्रा फीस हो वह भी बता देना, दे दूंगा। मैंने अपने सहकर्मी को अपनी पहचान वाला बताकर उनका काम पूरा करवा दिया । और मुझे गुस्सा तो तब बहुत आया जब अपना काम पूरा होने पर उन्होंने मेरी ऑफिस में ही सबके सामने मेरी तरफ सौ सौ के दो नोट बढ़ाएं। मैं एकदम हड़बड़ा गया और बोला – नहीं ..नहीं ..भाई साहब ! आप यह क्या कर रहे हैं और मैंने नोट लेने से इन्कार कर दिया। इस पर भी बड़ी भद्दी हंसी हंसते हुए वो बोले- ये नोट कम पड़ रहे हैं क्या बाबूजी? मेरे हिसाब से तो आपके लिए तो ये पर्याप्त होंगे । मेरी हालत ऐसी हो गई कि मानो काटो तो खून नहीं और मैंने बड़ी मुश्किल से उन्हें रवाना कर के चैन की सांस ली। जबकि यही महाशय अपने बच्चे की ट्यूशन की फीस देने से पहले बड़े अदब से कामताप्रसाद जी से पूछते हैं – गुरुजी, ट्यूशन की फीस की कोई चिंता ना करें। आपकी मेहरबानी से बस बच्चा अच्छा पढ़ लिख जाए। आखिर हम कमाते किसके लिए हैं। भला उन्हें कौन समझाए कि नैतिक मर्यादाओं का उल्लंघन कौन कर रहा है।
हद तो तब हो गई जब मेरा स्थानांतरण लगभग 70 किलोमीटर दूर किसी दूसरे तहसील कार्यालय में हो गया था। मैंने स्थानांतरण आदेश को निरस्त करने के लिए बहुत सर पटके, पर कोई परिणाम नहीं निकला और 4 वर्ष बाहर रहकर फिर बड़ी मुश्किल से किसी बड़े अधिकारी की रहम से पुनः अपने स्थानीय कार्यालय में स्थानांतरण करवा पाया।और मैं आज तक उसी मेहरबानी की कीमत चुकाने के लिए देर रात तक अपने कार्यालय की फाइलों और कम्प्यूटर के बीच फंसा रहता हूं। मैं ना अपने परिवार और ना ही अपने स्वास्थ्य की ओर ध्यान दे पा रहा हूं। और दूसरी और कामताप्रसाद जी का भी पदोन्नति होने से उनका स्थानांतरण बाहर हो गया था उन्होंने अपने आस-पास के मित्रों और कर्मचारी नेताओं से बात की और नयी स्कूल में तुरंत ज्वाइन कर लिया और 6 माह बाद ही पुन: इसी मिडिल स्कूल के हेडमास्टर बन कर आ गए।मुझे बाद में यह भी पता चला कि उन्होंने ₹15000 देकर अपना यह मुश्किल काम भी चुटकियों में ही करवा लिया था।
उनके घर के मुख्य दरवाजे पर लगी पीतल की नेम प्लेट सुनहरे अक्षरों से सुशोभित हो रही थी और मैं उसे एकटक देख रहा था कि अनायास ही मेरे मुंह से ये शब्द निकले …काश ! मैं भी एक अध्यापक होता।
लेखक
ईश्वर जैन ‘कौस्तुभ’
दिनांक :13/03/2020