काव्य रो रहा है
काव्य रो रहा है
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साहित्य में रस,छंद,अलंकारो का कलात्मक सौंदर्य खो रहा है,
काव्य मंचो पर कविताओं की जगह जुमलो का पाठ हो रहा है,
हास्य के साथ व्यंग की परिभाषा अब इस कदर बदल गयी है,
मुस्कुरा रहे श्रोतागण, सहित्य सृजन अभाव में काव्य रो रहा है !!
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डी के निवातिया