कारवाँ:श्री दयानंद गुप्त समग्र
पुस्तक समीक्षा
कारवाँ 【श्री दयानंद गुप्त समग्र 】
■■■■■■■■■■■■■■■■■■
पुस्तक का नाम : कारवाँ श्री दयानंद गुप्त समग्र
संपादक : उमाकांत गुप्त एडवोकेट
कोठी राम-निकेत ,निकट बलदेव इंटर कॉलेज ,सिविल लाइंस, मुरादाबाद 244001
संस्करण :प्रथम 2021
मूल्य : ₹650
प्रकाशक :गुंजन प्रकाशन ,सी – 130 हिमगिरि कॉलोनी ,काँठ रोड , मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश 244 105
■■■■■■■■■■■■■■■■■■■
समीक्षक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
■■■■■■■■■■■■■■■■■■■
श्री दयानंद गुप्त(12दिसंबर1912 – 25 मार्च 1982 ) का जन्म झाँसी ,उत्तर प्रदेश में हुआ किंतु आपकी कर्मभूमि सारा जीवन मुरादाबाद ही रही। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. किया । वहां पर आपका संपर्क छायावाद के प्रमुख स्तंभ महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला से हुआ । संवेदनशील व्यक्ति होने के नाते दयानंद गुप्त की काव्य चेतना उपयुक्त परिवेश पाकर प्रबल हो गयी। परिणाम स्वरूप 1941 में कारवाँ कहानी संग्रह ,1943 में श्रंखलाएँ कहानी संग्रह तथा 1943 में ही नैवेद्य काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ । विद्यार्थी जीवन के तारतम्य में लिखी गई इन कहानियों और कविताओं को पूरे मनोयोग से नवयुवक दयानंद गुप्त ने जिया । बाद में वह वकालत करने लगे और मुरादाबाद तथा आसपास के क्षेत्रों में में मशहूर वकील बनकर उभरे। कालांतर में आपने मुरादाबाद में दयानंद आर्य कन्या डिग्री कॉलेज, सिविल लाइंस, मुरादाबाद की स्थापना की । अन्य कई शिक्षा संस्थाएं भी आप की ही देन हैं।
कहानी और कविताओं की पुस्तकों के प्रायः दूसरे संस्करण नहीं छपते। पहला भी छप जाए तो बड़ी बात होती है। समय के साथ-साथ यह साहित्य स्मृतियों से ओझल होने लगता है और पुस्तक बाजार में अप्राप्य हो जाती है । कोई-कोई लेखक ऐसा सौभाग्यशाली होता है कि उसकी मृत्यु के चार दशक बाद अथवा यूं कहिए कि उसकी पुस्तक के प्रकाशन के आठ दशक बाद नए कलेवर में वह पुस्तक सामग्री पाठकों के पास पुनः पहुंचे । यह एक प्रकार से लेखन का पुनर्जन्म कहा जा सकता है । श्री दयानंद गुप्त के सुपुत्र श्री उमाकांत गुप्ता ने ऐसा ही एक दुर्लभ कोटि का कार्य करके पितृ ऋण से उऋण होने का प्रयास किया है । इसकी जितनी भी सराहना की जाए कम है ।
उपरोक्त वर्णित तीनों पुस्तकें “कारवाँ श्री दयानंद गुप्त समग्र” शीर्षक के अंतर्गत पुनः प्रकाशित हुई हैं । कविताओं का संबंध श्री दयानंद गुप्त ने न तो छायावाद और न ही प्रगतिवाद से जोड़ने का आग्रह किया है। दरअसल 1941/43 इतिहास का वह कालखंड था जब विद्यार्थी दयानंद ने जो काव्य सृजन किया था उस पर एक ओर छायावाद की गहरी छाप नजर आती है ,वहीं दूसरी ओर प्रगतिशीलता की ओर उनका चिंतन उन्मुख हो चुका था।
8 अक्टूबर 1943 को नैवेद्य कविता संग्रह की भूमिका में उन्होंने स्वयं लिखा है:- “मेरी कविताएं समय-समय की अनुभूतियों से प्रेरित होकर लिखी गई है । उनमें हृदय में उठते हुए भावों को केवल चित्रित करने का ही प्रयास किया गया है। किसी समस्या को सुलझाने या किसी विषय को प्रतिपादित करने का नहीं।”( पृष्ठ 20 )
यह छायावाद का प्रभाव है । व्यक्तिगत अनुभूतियों को कवि दयानंद ने स्वर दिया है। कविताओं का विषय अमूर्त प्रेम है । इनमें विरह की वेदना प्रकट हो रही है । कवि प्रेयसी की कल्पनाओं में डूबता है तथा कल्पनाशीलता के सहारे अपनी काव्य यात्रा को आगे बढ़ाता रहता है । उसके गीत अलौकिक वातावरण में गूंजते हैं । वह सब कुछ भूल जाता है और आपने आत्म में खोकर निरंतर एक अदृश्य आनंद की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है । इस क्रम में कविताएं किसी अदृश्य लोक में विचरण करती हुई प्रतीत होती हैं । इनमें एक प्रेमी का हृदय कभी मुस्कुराता और कभी विरह के ताप से जलता हुआ स्पष्ट दिखाई पड़ता है । सार्वजनिक जीवन में अथवा व्यक्तिगत स्तर पर इन भावनाओं को केवल संवेदनशील हृदय ही महसूस कर सकते हैं। इन कविताओं का मूल्य कभी कम नहीं होगा।
नमूने के तौर पर कुछ कविताओं की पंक्तियां प्रस्तुत हैं :-
(1)
प्रिय को क्या न दिया, हृदय ओ
प्रिय को क्या न दिया
उर सिंहासन पर आसन दे
फिर दृग जल अभिषेक किया
प्रिय को क्या न दिया (पृष्ठ 37)
(2)
बाँधों भागा जाता यौवन
समय ,जरा का देख आगमन
ले लो कर में एक तूलिका
कर दो अंकित यौवन-सपना
रंगों का अभिशाप मिटा दो
बना कला कि अमरण रचना
युग – युग तक भी रुका रहेगा
समय भागने वाला यौवन
बाँधो भागा जाता यौवन (प्रष्ठ 23 ,24 )
(3)
तोषी जन ,मन सोच न कर
जो बीन लिया वह मुक्ता
रह गया समझ सो पत्थर
तोषी जन मन सोच न कर (पृष्ठ 138)
उपरोक्त कविताओं में जहां एक ओर वेदना मुखरित हुई है ,वहीं आशा की किरण कवि ने अपनी लेखनी से प्रकाशित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। वह आशावादी है और अमरत्व को निरंतर कर्मशीलता के माध्यम से प्राप्त करना चाहता है ।
ऐसा नहीं है कि केवल अलौकिक जगत में ही कवि ने विचरण किया हो । “डाकिया” शीर्षक से कविता में जिस प्रकार से उस समय के डाकिए का चित्रण कवि दयानंद ने किया है ,वह चीजों को सूक्ष्मता से देखने और परखने की उनकी पारखी दृष्टि का द्योतक है । देखिए:-
सुरमई आंख खाकी वर्दी
आंखों पर लगी एक ऐनक
जब तुम्हें पास आते लखता
करता प्रेमी का उर धक-धक
हो कलम कान पर रखे हुए
चमड़े का थैला लटकाए
टकटकी बांध कंजूस – चोर
देखा करते मन ललचाए (पृष्ठ 29 ,30 )
महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के साथ दयानंद जी के आत्मीयता पूर्ण संबंधों का पता 10 अप्रैल 1941 को निराला जी द्वारा लिखित कारवाँ काव्य संग्रह की भूमिका से चलता है आपने लिखा :- “दयानंद जी गुप्त मेरे साहित्यिक सुहृद हैं। आज सुपरिचित कवि और कहानी लेखक । आपके गद्य पद्य दोनों मुझे बहुत पसंद हैं। दयानंद जी ने कहानियां लिखने में दूरदर्शिता से आंख लड़ाई है।”( पृष्ठ 177 )
श्री दयानंद गुप्त समग्र में कारवां की 11 तथा श्रंखलाएं संग्रह की 17 कहानियां हैं । कुल 28 कहानियां दयानंद गुप्त के कहानी कला कौशल की अद्भुत गाथा कह रही हैं । पात्रों के चरित्र चित्रण में आपको महारत हासिल है। हृदयों में प्रवेश करके आप उनके भीतर की बात जान जाते हैं और फिर इस प्रकार परिवेश का रहस्योद्घाटन होता है तथा परत दर परत भीतर का सत्य बाहर आता है कि पाठक सम्मोहित होकर कहानी के पृष्ठ पलटते चले जाते हैं और अंत में वह अनेक बार आश्चर्यचकित ही रह जाते हैं ।
“पागल” कहानी में ऐसा ही हुआ। एक असफल प्रेमी की मनोदशा कहानीकार ने बतानी शुरू की और फिर अंत में पाठकों की सारी सहानुभूति उस पागल व्यक्ति की ओर चली गई । अपराधी केवल उसकी प्रेमिका का विश्वासघात रह गया । (पृष्ठ 179)
“नेता” कहानी में उन लोगों का चरित्र चित्रण है जो न परिवार को कुछ समझ पाते हैं और न उनके हृदय में प्रेम का ही कोई मूल्य है । वह तो केवल सार्वजनिक सफलता और खोखली जय-जयकार में ही घिरे रहते हैं ।(पृष्ठ 200 )
“न मंदिर न मस्जिद” एक ऐसी कहानी है जिसमें कहानीकार का ऊंचे दर्जे का दार्शनिक चिंतन प्रकट हुआ है । मंदिर और मस्जिद से बढ़कर ईश्वरीय चेतना सर्वव्यापी होती है ,इस बात को कहानीकार ने एक अच्छा कथानक लेते हुए भली प्रकार से रचा है । कहानीकार मंदिर और मस्जिद की आकृतियों से परे जाकर ईश्वर की सर्वव्यापी चेतना का उपासक है । लेकिन वह यह भी जानता है कि समाज अभी इसके लिए तैयार नहीं है ।(पृष्ठ 278)
कहानी लेखन में दयानंद का चिंतन शीलमस्तिष्क पूरी तीव्रता के साथ काम कर रहा है । वह एक विचार को लेकर कहानी लिखना शुरू करते हैं और उसे घटनाओं का क्रम देते हुए इस खूबसूरती के साथ पाठकों के हृदय में प्रविष्ट कर देते हैं कि लगता ही नहीं कि कोई उपदेश दिया जा रहा है । इस क्रम में उनकी लोकतांत्रिक स्वाधीनतामूलक भाव भंगिमाएँ भी अनेक स्थानों पर प्रकट हुई हैं।
एक स्थान पर वह अंग्रेजों द्वारा चलाई जा रही न्याय पद्धति पर इन शब्दों में टिप्पणी करते हैं :- “गुलाम भारत के दुर्भाग्य से कचहरी का न्याय भी एक महंगा सौदा है । जो जीता सो हारा ,जो हारा सो मरा ।” (पृष्ठ 383, कहानी का नाम : तोला )
साहित्यकार युग दृष्टा होता है । वह जो सत्य लिख देता है ,इतिहास के पृष्ठों पर अमिट हो जाता है । न्याय पद्धति का परिदृश्य जो 1943 में था ,वह आज भी चल रहा है ।
श्री दयानंद गुप्त की सार्वजनिक महत्वपूर्ण भूमिकाओं को पुस्तक के अंत में अनेक चित्रों द्वारा प्रदर्शित किया गया है। इनमें जिनेवा में हुई अंतर्राष्ट्रीय मजदूर सम्मेलन में 1952 में श्री दयानंद गुप्त की भागीदारी के चित्र विशेष रुप से बहुत मूल्यवान है । कुल मिलाकर “कारवाँ : श्री दयानंद गुप्ता समग्र” एक युगपुरुष की कविताओं और कहानियों को नए सिरे से पढ़ने का अवसर पाठकों को उपलब्ध कराएगा, यह निसंदेह एक बड़ी उपलब्धि है।