क़तरा क़तरा कटती है जिंदगी यूँ ही
ताउम्र जिंदगी के नफ़्स से
अनजान रहा ये मुसाफ़िर
क़िस्से कई हैं ऐसे
क़तरा क़तरा कटती है
ये जिंदगी यूँ ही
.
नुक्ता ख़लिश के अज़ाब का
समझते तो आक़िल भी नहीं
नाशिनास ना समझ बैठे ज़माना
वो बस ग़मज़दा हो कर
यादों की सिर्फ आह भरते हैं
.
क़तरा क़तरा कटती है
ये जिंदगी यूँ ही –
वो आहें – वो यादें
फ़ना होती नहीं कभी
.
कभी दीवान की शक़्ल में
तो कभी शायरी बन कर
कभी क़ब्र पर
लिखे चंद अलफ़ाज़ बन कर
.
अतुल “कृष्ण”