कहीं कोई भगवान नहीं है//वियोगगीत
संगम के तट पर इक बेवा, रोते रोते चीख रही है।
कहीं कोई भगवान नहीं है, नहीं, कोई भगवान नहीं है।
पूरी दुनिया में बापू ने, यही एक वर क्यों ढूँढा था ?
मैंने तो व्रत भी रखे, फिर भाग मेरा ही क्यों फूटा था ?
कोई मंगल, रीत, तुम्हारी दुनिया वालों काम न आई,
कहां ज्ञान रख आया पंडित, जिसने थी कुंडली मिलाई।
एक वियोगन कमसिन, पूरा जीवन दर्शन सीख रही है।
कहीं कोई भगवान नहीं है, नहीं, कोई भगवान नहीं है।
सारे देव, पितर पूजे थे, अम्मा और चाचियों ने भी।
सात दफा ये माँग भरी थी, मेरी सभी भाभियों ने भी।
सारे देव उठाकर फेंको, पितरों को भी आग लगा दो।
आशीर्वाद नहीं फलते हैं, ये नववधुओं से बतला दो।
प्रभुता से हारी नारी को, प्रभुता हारी दीख रही है।
कहीं कोई भगवान नहीं है, नहीं, कोई भगवान नहीं है।
गीता, शास्त्र बाँचने वाले, स्त्री दृव्य कहाँ समझेंगे ?
पल में दूजा ब्याह रचाते, ये वैधव्य कहाँ समझेंगे।
अम्बे! इस दुनिया में अब भी, ऐसा चलन सुरक्षित क्यों हैं ?
पुरुष विधुर तो रहे शान से, स्त्री मगर उपेक्षित क्यों है ?
क्या मतलब है परम पिता का, अपनी देहरी भीख रही है।
कहीं कोई भगवान नहीं है, नहीं, कोई भगवान नहीं है।