**कहीं कोई कली खिलती बहारों की**
**कहीं कोई कली खिलती बहारों की**
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कहीं कोई कली खिलती बहारों की,
दिखो तुम तो झलक मिलती बहारों की।
उड़ें जुल्फें हवा जैसे चले नभ थल,
लटें तेरी घटा घटती बहारों की।
बड़ा प्यारा हुआ मौसम मिले जो तुम,
गिरे बिजली अगन ठरती बहारों की।
खुली बांहे लगो गल हार घुट सीना,
मिलन अपना तलब मरजी बहारों की।
खड़ा है यार मनसीरत चले आओ,
उठे तलबी गिनो गिनती बहारों की।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)