#कहानी-
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■ राखी का उपहार…।
【प्रणय प्रभात】
शानदार राजमार्ग पर टेक्सी अपनी रफ़्तार में दौड़ रही थी। काली और चिकनी सड़क के दोनों ओर खूबसूरत नज़ारे तेज़ी से उल्टी दिशा में भाग रहे थे। पुराने गीतों की मद्धिम धुनों का लुत्फ़ लेता कैब चालक अपनी मस्ती में मस्त था। पिछली सीट पर शशांक लंबे सफ़र की थकान उतारते हुए नींद के आगोश में थे। वहीं रश्मि जागृत अवस्था में होकर भी एक अलग दुनिया की सैर पर थी। तमाम दृश्य उसके ज़हन में किसी फ़िल्म की तरह कौंध रहे थे। जो कभी रंगीन हो जाते तो कभी श्वेत-श्याम। कुछ के साथ जानी-पहचानी सी आवाज़ें तो कुछ पूरी तरह से निस्तब्ध।
रश्मि की यह मनोदशा सहज और स्वाभाविक थी। शादी के बाद दूसरी बार जो लौट रही थी अपने मायके। वो भी पूरे पौने चार साल बाद, एक महीने के लिए। अपने पीहर और ससुराल से लगभग 45 महीनों की दूरी की वजह थी कोविड-काल की पाबंदियां, जिन्होंने दोनों को यूएसए के बोस्टन में समेट कर रख दिया था। जहां शशांक की तैनाती प्रोफेसर के तौर पर थी।
शादी के महज तीन महीने बाद दुनिया कोरोना की जद में आ गई। पाबंदियों से मजबूर रश्मि और शशांक दोनों अपने-अपने भाई की शादी तक में शरीक़ नहीं हो सके। जो महानारी के दौर में सीमित लोगों के बीच ढाई माह के अंतराल में से सम्पन्न हुई। दोनों सात समंदर पार रहते इन शादियों के गवाह बने वीडियो कॉल के जरिये। वो भी कुछ ख़ास प्रसंगों पर, मन मसोस कर।
परिवार के नए सदस्यों से रूबरू मिलने की चाह सातवें आसमान पर थी। मज़े की बात यह थी कि दोनों के परिवार उनके आने की ख़बर से पूरी तरह अंजान थे। परिवारों को अचानक पहुंच कर सरप्राइज़ देने की प्लानिंग दोनों ने मिल कर जो की थी। अगले दिन रक्षा-बंधन होने के कारण दोनों का पहला पड़ाव दो हफ़्ते के लिए पुणे में तय था, क्योंकि शशांक के कोई बहिन नहीं थी। जबकि रश्मि के परिवार में उसका छोटा भाई निकुंज इकलौता था। अगले दो हफ़्ते दिनों को कर्जत में गुज़ारने थे। जहां की खूबसूरत वादियों में शशांक का परिवार आबाद था। दोनों जगहों के बीच फ़ासला बेहद मामूली।
मुंबई एयरपोर्ट पर उतरने के बाद दोनों टूरिस्ट कैब से सफ़र कर रहे थे। पुणे आने में बमुश्किल 15 से 20 मिनट बाक़ी थे। रश्मि की भाव-यात्रा कार के अंदर तेज़ी से जारी थी। घर का कोना-कोना उसे रह-रह कर याद आ रहा था। ख़ास कर वो कमरा जो उसका अपना था। पापा ने अपनी लाड़ली बिटिया के लिए यह कमरा बेहद रुचि से बनवाया था। शानदार इंटीरियर और लंबी बालकनी वाले इसी कमरे में बीते उसके जीवन के 25 साल। इसी कमरे में सजी रहीं उसके बचपन से जवानी तक की तमाम यादें। साथ ही बहुत से खट्टे-मीठे किस्से भी। इन्हीं में जुड़ा एक बेहद कड़वा-कसैला सा किस्सा, जिसे वो चाह कर भी आज तक नहीं भुला पाई थी।
अब जबकि कार पुणे की सीमा में दाख़िल हो चुकी थी, रश्मि का मन अपने उसी कमरे की ओर मुड़ चुका था। उसी कमरे की ओर जो उसके और निकुंज के बीच कलह और द्वंद्व का सबब बना रहा। दरअसल, उससे 3 साल छोटा निकुंज ग्रेज्युएशन के पहले से उस कमरे को अपना बनाना चाहता था, जबकि रश्मि उसे छोड़ने को राज़ी नहीं थी। वैसे भी दोनों के बीच वैचारिक तालमेल ना के बराबर था। घर में सब कुछ होते हुए भी दोनों के बीच आए दिन किचकिच आम बात थी। तुनक-मिज़ाज निकुंज के सिर पर इकलौते बेटे होने का भूत सवार था। वहीं घर-परिवार के सरोकारों से जुड़ी रश्मि भी हर बार समझौते से आज़िज आ चुकी थी।
रश्मि की शादी तय होने से चंद माह पहले आया एक बेहद ख़राब दिन। ग्रेज्युएट होते ही निकुंज ने फिर छेड़ दिया कमरे का घिसा-पिटा राग़। रश्मि के विरोध से गुस्से में लाल-पीला निकुंज बहुत उत्तेजित था। उसने अपना सारा आपा खोते हुए यह तक कहने से गुरेज़ नहीं किया कि वो क्या सारी उम्र इसी कमरे में कुंडली डाले बैठी रहेगी। जिस दिन ब्याह कर जाएगी, उसी दिन वो उसका सारा सामान निकाल कर हमेशा के लिए फेंक देगा। पापा की समझाइश और मम्मी की मान-मनोव्वल के बाद भी उसका पारा शांत नहीं हुआ। वो बिना कुछ खाए-पिए घर से ऐसा निकला कि देर रात ही वापस लौटा। बुरी तरह आहत रश्मि भी दिन भर रोती रही और अपनी मम्मी के साथ ही सोई। अगली सुबह मुंह-अंधेरे उठी रश्मि ने भारी मन से अपना सामान समेटना शुरू कर दिया।
आदतन 11 बजे तक जागने वाले निकुंज की नींद खुलने से पहले कमरा ख़ाली हो चुका था। रश्मि अपना सामान दूसरे कमरे में शिफ़्ट करने में जुटी रही। यह सिलसिला शाम ढलने से कुछ वक़्त पहले तक चला। इससे पहले पापा बेमन से आधा-अधूरा नाश्ता कर ऑफ़िस के लिए जा चुके थे। कुछ देर बाद मामी भी रसोई के काम से फ़ारिग होकर स्कूल के लिए रवाना हो चुकी थीं। इन सबसे बेपरवाह निकुंज ने दोपहर बाद आनन-फानन में खाना खाया और बाइक उठा कर घर से निकल गया। इस घटना के बाद घर का माहौल कुछ दिनों तक असहज सा बना रहा। किसी एक क लिए नहीं, चारों के लिए। कमरा अपनी जगह ख़ाली पड़ा रहा, जिसकी ओर न रश्मि ने निगाह डाली, न अड़ियल निकुंज ने। मम्मी-पापा भी इस अप्रिय मसले पर ख़ामोश थे। उन्हें पता था कि हाल-फ़िलहाल उनकी कोई भी कोशिश आग पर पानी की जगह घी का ही काम करेगी। माहौल धीरे-धीरे शांत हुआ मगर इसमें क़रीब एक महीने का अच्छा-ख़ासा समय ज़ाया हो गया।
बहरहाल, समय का परिंदा अपनी गति से उड़ता रहा। एक दिन शशांक के परिवार के सदस्य और रश्मि के पापा के सहकर्मी की पहल पर दोनों परिवार मिले। यूएसए में पदस्थ होने जा रहे शशांक व परिजनों को उच्च शिक्षित व सर्वगुण-सम्पन्न रश्मि पहली ही नज़र में भा गई। लेन-देन या दिखावे जैसी सामाजिक बीमारियों से कोसों दूर दोनों कुलीन परिवार नए रिश्ते को लेकर रज़ामंद हो गए। दो महीने से भी कम की अवधि में रश्मि और शशांक जीवन-साथी बन गए। बहुत धूमधाम से हुई इस शादी के दौरान रश्मि का ख़ाली कमरा दान-दहेज के साजो-सामान। का भंडार बना रहा। शादी के दो दिन बाद रश्मि पहली बार विदा होकर मात्र 3 दिनों के लिए अपने घर आई। चौथे दिन दोनों छोटे भाइयों के साथ शशांक उसे लेने आ गया। तीन दिन ससुराल में रहने और सारी रस्मों को निभाने के बाद रश्मि शशांक के साथ अमेरिका रवाना हो गई। जिसे अपने वतन लौट का मौक़ा आज पौने चार साल बाद मिल पा रहा था। बल्लियों उछलते दिल की उमंग अपनी जगह थी। जिसे दिमागी जंग रह-रह कर छेड़ रही थी। हालांकि शादी तय होने के बाद निकुंज का रुख एक बार फिर सहज हो गया था। जिससे उसकी बातचीत भी गाहे-बगाहे वीडियो-कॉल पर हो जाया करती थी। एक मल्टीनेशनल कंपनी की बेहतरीन जॉब उसे पुणे के नज़दीक चाकण में मिल चुकी थी। लिहाजा उसने अपने साथ इसी कंपनी में कार्यरत नेहा के साथ विवाह कर लिया। सामाजिक या आर्थिक विषमता जैसी कोई बात थी नहीं। परिवार राज़ी थे और शादी परम्परागत विधि-विधान से होते देर नहीं लगी। जिसमें शशांक के माता-पिता व भाई भी शामिल रहे।
अचानक एक स्पीड-ब्रेकर पर लगे ब्रेक से शशांक की नींद और रश्मि की तंद्रा एक साथ टूटी। कार घर की कॉलोनी में दाख़िल हो चुकी थी। शशांक के इशारों पर ड्राइव होती कार अब तिमंज़िला आलीशान घर के दरवाज़े पर थी। हॉर्न की आवाज़ सुन ग्राउंड-फ्लोर पर ड्राइंग-रूम में बैठे पापा ने गेट खोला। कार की डिक्की से सामान निकलवाते शशांक और पास खड़ी रश्मि को देखते ही भाव-विह्वल हो गए। रुंधे गले से निकली आवाज़ को सुनते ही निकुंज लगभग दौड़ता हुआ बाहर आया। शशांक और रश्मि के पांव छूने के बाद उसने बड़ा सा सूटकेस उठाया और अंदर चल पड़ा। बेटी और दामाद पर भरपूर प्यार पापा उंडेल ही चुके थे। मम्मी और नेहा भी दरवाज़े पर अगवानी के लिए बेताब खड़े थे।
क़रीब दस मिनट के आत्मीय मेल-मिलाप के बीच ड्राइवर वापस मुम्बई कूच कर चुका था। पापा-मम्मी और नेहा के साथ दोनों फर्स्ट-फ्लोर पर पहुंचे, जहां निकुंज पहले से खड़ा था। इससे पहले कि रश्मि कुछ बोल पाती, उसने उसके कंधे पर हाथ रखा और उसे उसके पुराने कमरे की ओर ले जाने लगा। बाक़ी सब भाई-बहिन के पीछे थे। रश्मि को लगा मानो निकुंज अपनी जीत का इज़हार करने को बेताब है। वो उसे अपना कमरा दिखा कर फिर से कुछ याद दिलाना चाहता है। वही सब, जिसे भूल पाने में वो ख़ुद आज तक नाकाम रही। उल्लासित मन पर नैराश्य का भाव एक बार फिर से ग्रहण लगाता प्रतीत हुआ। गैलरी से कमरे के द्वार तक पहुंचने के बीच कमरे के तमाम काल्पनिक अक़्स उसके दिमाग़ में बन-बिगड़ चुके थे।
एक मिनट बाद वो उस कमरे में थी। जिसकी खिड़कियों पर मंहगे पर्दे नज़र आ रहे थे। उसके बेड की जगह बेशक़ीमती डबल-बेड ने ले ली थी। सुर्ख लाल रंग की चमकती-दमकती दीवार पर बड़ी सी नक़्क़ाशीदार फ्रेम में जड़ी उसकी और शशांक की बेहद खूबसूरत सी तस्वीर लगी हुई थी। एक दीवार से सटे बड़े से ग्लास के कबर्ड में उसके द्वारा हासिल की गई शील्ड, कप और ट्रॉफियां करीने से सजी हूई थीं। एक क़ीमती बुक-शेल्फ़ में उसकी पसंद की किताबें यथावत मौजूद थीं। एक कोने में सुंदर सी चेयर के साथ बड़ी सी टाइटिंग टेबल और उसकी रौनक को चार चांद लगाता एक इम्पोर्टेड लेम्प। छत के बीचों-बीच लटका सतरंगी झूमर और दीवार पर लगी बड़ी सी डिज़ीटल क्लॉक। बालकनी में फूलदार पौधों के रंग-बिरंगे गमले और मनी-प्लांट की परवान चढ़ती बेल। पूरी तरह अनछुआ सा नज़र आता कमरा अपने कौमार्य का साक्षी ख़ुद बना हुआ था। रश्मि अवाक सी खड़ी थी। उसकी आंखों से टप-टप गिरते आंसू मौन को मुखरित कर रहे थे। सारा उद्वेग गालों के रास्ते बह जाने को था। निकुंज डबडबाई नज़रों से अपलक उसकी ओर ताक रहा था। उसके चेहरे पर अपराधबोध से जीते अबोधपन के अनूठे से भाव थे। कुछ लम्हों की इस खामोशी को तोड़ा सुबकने और फ़फकने की मिली-जुली आवाज़ों ने, जो एक-दूजे को बांहों में भरे खड़े भाई-बहिन के मुंह से निकल रही थीं।
कुछ पलों के बाद ख़ुशी से चहकती हुई नेहा कमरे के कायाकल्प में अपनी भूमिका और निकुंज के भाव की दास्तान सुना रही थी। सारे कथानक से परिचित शशांक एक छोटी सी सरप्राइज़ के बदले बड़ी सरप्राइज़ से चकित थे। मम्मी-पापा के चेहरे पर भव्य कमरे की शान को मात देती दिव्य सी मुस्कान थी। वहीं रश्मि राखी बांधने से पहले मिले इस भावनापूर्ण उपहार को जीवन का सबसे बड़ा और अनमोल उपहार मान रही थी। आज शायद पहली बार उसे अहसास हुआ था कि एक बहिन के रूप में उसके लिए यह घर आज भी उतना ही अपना है, जितना कल तक एक बेटी के रूप में था। भले ही उसे चंद रोज़ बाद एक बार फिर से उड़ जाना था एक पराए देश मे। सब कुछ यहीं छोड़ कर। दिन-महीनों या सालों नहीं बल्कि तमाम उम्र के लिए।।
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्य प्रदेश)