कहानी 1(हिंदी भाषा का वर्तमान स्वरूप)
*मेरा नाम राज वीर शर्मा है।मैं बोकारो का मूलवासी हूँ।वर्तमान में स्नातकोत्तर हिंदी का छात्र हूँ।
मेरी ये रचना मौलिक और अप्रकाशित है। ये रचना किसी भी कवि का नकल नहीं है।अगर मैं दोषी पाया गया तो उचित कार्यवाही का भागी बनूँगा*
शीर्षक -हिंदी भाषा का वर्तमान स्वरूप
निज भाषा उन्नति अहै निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।। … इस दोहे का अर्थ है अपनी भाषा से ही उन्नति सम्भव है, क्योंकि सारी उन्नतियों का मूल आधार यही है।
भारतेन्दु जी के इसी पंक्तियों से प्रभावित होकर मैंनें लिखने का प्रयत्न किया है।
मैं कोई विद्वान नहीं हूँ।मैं जो भी लिख रहा हूँ मैंने उसे महसूस किया है, उसी अनुभव को आप सबके साथ साझा कर रहा हूँ।
मेरे लिए हिंदी माँ, मिट्टी और मोहब्बत है।
हिंदुस्तान की आत्मा ,हमसब की चाहत है।।
हजारों साल पहले की बात करें तो हिंदी भाषा से पहले भी भाषाएँं थी। लेकिन उसका स्वरूप कुछ और था।भाषा सिर्फ लोगों से जुड़ने का माध्यम ही नहीं ,वो आत्म बल होता है।अगर किसी की भाषा छीन गई तो वो समझो गुलाम हो गया।और इसका प्रमाण यह है कि –
1आर्य आए संस्कृत लाए।हम गुलाम हो गए।
2 मुसलमान आए,उर्दू साथ लाए हम गुलाम हो गए।
3 अंग्रेज़ आए अंग्रेजी नसों में घोल दिया हम गुलाम हो गए।
दरअसल देखा जाए तो भारत कभी भी शरीर या सेना की सँख्या से कमज़ोर नहीं था।चाहे वो 7 ई०वी० से लेकर 1600 ई०वी० तक जितने भी आक्रमण हुए हो उस समय के बाहरी सेना और भारत की आबादी आप देख सकते हैं । शायद भारत में इतनी भाषाओं के कारण कोई एक-दूसरे को समझ नहीं पाया या फिर अपनी बातों को समझा नहीं पाया इसलिए भारतीयों में शारीरिक बल होते हुए भी हजारों वर्षों तक हारते आए।भारत माँ के छाती को लहूलुहान होने से रोक नहीं पाए।इतने सालों में जहाँ देश गुलामी की मार झेल रहा था वहीं सभी बोली और भाषाओं के बीच मंथन हो रहा था। तब जाकर हिंदी का निर्माण हुआ। हिंदी का विकास होते ही पूरा भारतवर्ष एकता के सूत्र में बंधने लगा। कवियों की अखंड तपस्या के कारण हिंदी ने सभी को जोड़ना प्रारंभ किया। देश के कोने-कोने में कवियों द्वारा हिंदी का प्रचार-प्रसार किया गया । कई कहानियों, उपन्यासों, कविताओं ,रंगमंच और नाटकों के माध्यम से जनजागृति हुई।लेकिन उस समय अंग्रेजों का आगमन हो चुका था , वे समझ चुके थे कि अगर हिंदुस्तान को गुलाम बनाए रखना है तो इनकी *हृदय हिंदी पर चोट करो।इसी पर 1834 में भारत आए थॉमस बबिंगतों मेकॉले ने 1853 में ब्रिटिश पार्लियामेंट में एक बिल पास कराया , जो बिल 1840 में ही बनकर तैयार हो चुका था। लेकिन वह 1853 में पूर्णता लागू हो गया , मेकॉले ने जो बात कही अपने पार्लियामेंट में वो हैरान करने वाली थी – “उसने कहा मैं भारत के चारों दिशाओ में घना घुमा हूँ , अगर हिंदुस्तान को तोड़ना है तो हिंदी को तोड़ना होगा ।* ” और उसने इसी पर काम करना प्रारंभ किया। फिर धीरे धीरे अदालत , शिक्षा एवं सामाजिक कार्यों में अंग्रेजी भाषा को सर्वोपरि कर दिया गया। यही कारण था कि लोग झुकते चले गए । इसका किसी ने कोई विरोध नहीं किया सिर्फ एक अंग्रेजी भाषा की वजह से वे बुद्धिमान और हम मूर्ख कहलाए।
और इसी दौड़ में कुछ लोगों ने अंग्रेजी सीखा ताकि अंग्रेजों की भाषा में उसका जवाब दे सकें।जब देश आज़ाद हो गया तब भी अंग्रेजी को महत्व दिया जाने लगा , क्योंकि यही नीति मेकॉले ने बना कर दी थी कि भारत अगर भविष्य में आजाद भी हो जाए तो वो अंग्रेजों का भाषिक और मानसिक रूप से गुलाम बना रहेगा।
हिंदुस्तानियों की हिंदी भाषा हीन हो गई।
अंग्रेजो की अंग्रेजी भाषा महान हो गई।।
हिंदी का वर्तमान स्वरूप
देश आज़ाद हो गया ख़ुशी की लहर आई , कुछ लोगों के शहादत पर देश का पुनर्जन्म हुआ ।लेकिन दुर्भाग्य रहा कि जिसनें जवानी लगा दी ,जिसने घर परिवार त्याग दिया , उनके आदर्शों और उसूलों पर देश नहीं चला। वही अंग्रेजों की तरह सोच रखने वाले लोगों ने देश की कमान संभाली और देश को तहस- नहस करना सुरु कर दिया। राजनीति का धर्म नहीं , धर्म की राजनीति की, हिन्दू- मुसलमान की राजनीति की।
अंग्रेज पहली बार तब सफ़ल हुए जब भारत-पाकिस्तान अलग हुआ।भारत से बंगलादेश,नेपाल,म्यामांर अलग हुए।इसका भी कारण कहीं न कहीं भाषांतर था।
2010 से 2020 तक जितना मैंने भारत के सामाजिक जीवन को समझा है , मैं ये दावे से कह सकता हूँ कि *वो मुट्ठी भर अंग्रेज थे जो चले गए,लेकिन हमारे आस पास सभी अंग्रेजी को अपनाकर अंग्रेज बन बैठे हैं।जबकि भारतवर्ष में अंग्रेजी बोलने वाले और समझने वाले 10% से भी कम लोग हैं। क्या वही लोग देश को फिर से गुलाम बनाना चाहते हैं? जिन्हें लगता है कि अंग्रेजी ही सबकुछ है। और कहते हैं कि अंग्रेजी अंतरास्ट्रीय भाषा है जबकि ये सरासर गलत है।अंग्रेज ने कुल 14 देशों को गुलाम बनाया। वही गुलाम वाले देश में अंग्रेजी भाषा है, जो बड़े और विकसित देश हैं। वहाँ उनकी अपनी भाषा है जैसे चीन में चायनीज(मंडारिन),फ्राँस में फ्रेंच, ज़र्मनी में जर्मन ,अमेरिका में अमेरिकन आदि देश अपनी ही भाषा का प्रयोग करते हैं। तभी तो वे आगे हैं। भारत देश की इतनी बड़ी आबादी और सोने की चिड़िया कहे जाने के बावजूद भारत देश पीछे है , इसका कारण सिर्फ अंग्रेजी है। कभी भारत ‘विश्वगुरू’ हुआ करता था क्योंकि अपनी भाषा पद्धति से देश में शिक्षा का पठन पाठन का काम हो रहा था। वर्तमान में अंग्रेजी का प्रचलन चरम सीमा पर है। ये बता दिया गया है कि आप अंग्रेजी माध्यम में पड़े हो तो आप होसियार हो वरना आप बेवकूफ हो जबकि ऐसा नही है । मैं सरकारी विद्यालय से पढ़ा पैदल कई किलोमीटर दूरी तय कर पढ़ने गया और हिंदी माध्यम में पढ़ा ।वही मेरे कुछ तथाकथित रिस्तेदार ,आस पड़ोस, मित्र लोग अंग्रेजी माध्यम के निजीकरण विद्यालय में पढ़े, वो सिर्फ विद्यालय में अंग्रेजी पढ़ते घर और समाज में अपनों के साथ हिंदी बोलते । आज ये नौबत आ गई है कि उनको बोला जाए कि अट्ठावन लिख कर दिखाओ तो वे सोच में पड़ जाते हैं कि 58 या 68 लिखें ये हालत है।हमारा हिंदी-अंग्रेजी के बीच कचड़ा हो गया है । न हम ठीक से शुद्ध हिंदी और न ही अंग्रेजी सिख पाए। लेकिन फिर भी 70% से ज्यादा लोग हिंदी आसानी से बोल और समझ लेते हैं । तो क्या जरूरत है अंग्रेजी की ? हम सब लार्ड मैकाले के साजिश का शिकार हैं । अगर हम शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी से हिंदी कर दें । तो एक परिवार के सभी बच्चे पढ़ सकते हैं लेकिन जहाँ अंग्रेजी में बेटों और बेटियों को हिंदी में पढ़ाया जाता है ,न चाहकर भी घरवाले भेदभाव करते हैं ।इसकी वजह यह है कि अंग्रेजी में शिक्षा देने के कारण एक सामान्य परिवार की आमदनी का 50% से ज्यादा शिक्षा में ही चली जाती है।और इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वो लड़का या लड़की जीवन मे सफ़ल ही होगा। जब एक बच्चे का जन्म होता है , वो बोलना शुरू ही करता है कि उसे अंग्रेजी में ABCD पढ़ाना शुरू कर दिया जाता है । उसे लार्ड मैकाले के साजिश का शिकार खुशी- खुशी होने दिया है।ये क्रम लगातार चलता जाता है।कुछ लोग तो अंग्रेजी जानने पर इतना इतराते हैं , मानो उन्हें ‘ज्ञानपीठ’ पुरस्कार मिल गया हो। यही कुछ लोग समाज में अंग्रेजों की तरह ‘फुट डालो और शासन करो’ की नीति अपनाते हैं।हिंदुस्तान में ज्यादातर हिंदू धर्म के मानने वाले लोग हैं , जो ‘रामायण और गीता’ को मानते हैं।क्या एक भी विद्यालय ऐसा है जो श्रीराम जी के नाम का हो, केवल सरस्वती जी के अलावा किसी और देवी देवताओं के नाम का नहीं है। किन्तु अंग्रेजों के सारे देवताओं संतों के नाम का विद्यालय भारत में भरा पड़ा है। उसका सारा पैसा अंग्रेजों के पास ही जाता है। हमारे देश में कुछ ग़द्दार ऐसे भी हैं।जो अभी भी अंग्रेजों के अंधे भक्त बन कर देश को गुलामी की ओर धकेल रहे हैं। इस क्रम में सबसे आगे नेता हैं चाहे वो पक्ष के हों या विपक्ष के ।
बहुत सारे नेता जो कभी झूठ बोल कर मासूम जनता को बेवकूफ बनाकर उन्हें लुटते हैं ।और उन्हीं के पैसों से बड़े-बड़े शिक्षण संस्थान खोले गए और अब शिक्षा के माध्यम से मासूम जनता को लूट रहे हैं। शायद यही कारण है की जब UNO द्वारा भारत को कहा गया कि हम आपके हिंदी भाषा को अन्य भाषाओं की तरह अपनी संघ की भाषा बनायेंगे तो उस समय के स्थाई सरकार ने मना कर दिया। इसके बदले सिर्फ़ *UNO भारत से प्रति वर्ष 300 से 400 करोड़ ही ख़र्च करने को कहा पर यही पैसा जान बूझ कर नेताओं ने नहीं दी ।उस वक़्त भारत का वार्षिक बजट 15 लाख करोड़ से भी ज्यादा था । या उससे भी ज्यादा । अगर ऐसा होता तो लोगों में हिंदी भाषा को लेकर मान और इज़्ज़त बढ़ जाती । यदि UNO में हिंदी स्थापित हो जाती तो भारत सरकार को इसे देश की राष्ट्र भाषा घोसित करना ही पड़ता ।परंतु ऐसा होता तो जो अंग्रेजी के शिक्षा माफ़िया है जो अभी भी मैकॉले के भक्त है। जैसे-नेता ,पूंजीपति, अंग्रेजों के संतो का ट्रस्ट आदि।चूँकि इन्हीं लोगों ने ये कह दिया कि हिंदी से विज्ञान,गणित,अर्थशास्त्र, वकालत और अधिकारियों की पढ़ाई नहीं हो सकती है और हम भारतवासीयों ने इसे आसानी मान लिया । इसी के कारण आज देश में शिक्षा सभी को समान रूप से नहीं मिल पा रही है , इसका एक बहुत बड़ा अंतर समाज के बीच केवल अंग्रेजी भाषा को लेकर आ गया है। ऐसा नहीं हैं कि लोग इस बात को समझ नहीं रहे है , किंतु लोग आगे आकर कुछ करना ही नहीं चाहते हैं।
हिंदी को बर्बाद करने का जिम्मेदार कौन हैं?
# क्या वे हिंदी के शिक्षक हैं , जो खुद हिंदी के शिक्षक होते हुए भी अपने बच्चों को अंग्रेजी शिक्षा की ओर धकेल रहे हैं।
हिंदी के भक्त हैं हम दुनिया को बताते हैं।
पर अपने सपूत को कॉन्वेंट में पढ़ाते हैं।।
बन गया जो कलेक्टर देगा हमें सहारा।
फिर भी सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान हमारा।।
शायद उन्हें अपनी प्राप्त शिक्षा पर भरोसा नहीं।या वो शिक्षक जो सड़क पर लिखतें है कि मात्र 30 दिनों में अंग्रेजी भाषा सीखें। जिस अंग्रेज ने 300 सालों तक राज किया उस भाषा को ये सिर्फ 30 दिन में सीखाने का दावा करते हैं।क्या ये अपने पेशे की आड़ में हिंदी को समाप्त कर देना चाहते हैं। जबकि अंग्रेजी में सिर्फ 26 अक्षर हैं और हिंदी में इसका दोगुना 52 ये अंग्रेजी भाषा किसी भी तरह से हिंदी के बराबर नहीं हैं ये बात सच है कि जिस तरह अंग्रेजों में घमंड था , वही घमंड हमारे देश के अंग्रेजी जानने वाले लोगों में है। वे ही भारतीय समाज को दो हिस्सों में बाँटने का काम करते हैं। ये वे लोग हैं , जो अंग्रेजी बोलने वालों को सभ्य तथा हिंदी या दूसरी भाषा बोलने वालों को मूर्ख समझते हैं। अंग्रेजी भाषा 5 वीं शताब्दि की भाषा है । अंग्रेजों ने सभी भाषाओं से चुरा कर ये भाषा बनाई है । अंग्रेजी की हर एक शब्द का अपना इतिहास है। *जो सबसे रद्दी, खराब और निरर्थक है।जैसे –
1. Sir शब्द ,जो गुलामी का प्रतीक है ।खासकर आजकल शिक्षक/गुरु के स्थान पर sir शब्द का प्रयोग किया जाता है जो सरासर गलत है गुरु-शिष्य का परंपरा युगों से चला आ रहा है जो कि एक आदर्श बंधन माना जाता है ।इसलिए इसके स्थान पर गुरु,श्रीमान, महाशय,का प्रयोग किया जाना चाहिए।
2 एक शरीफ़ घर की स्त्री को Madam कहते हैं जो वेश्यावृत्ति के प्रमुख स्त्री या दूसरे स्त्री को जबरन अपना कहने का प्रतीक है। जबकि अच्छे घराने या अपनी आस पड़ोस की स्त्री को माँ, चाची , फुआ ,देवी जी,बहन, मित्र या जैसा रक्त सबंध हो उस तरह से संबोधन करना चाहिए।
3 MISSES मर्दों के रखैल का प्रतीक है। जबकि भारत के पुरुष अपनी धर्म पत्नी को मिसेस कहते है जो कि गलत है। इसके स्थान पर श्रीमती कहिये,प्रिये या नाम लेकर पुकारें ।
4 MISTER औरतों के रखैल का प्रतीक है। भारतीय स्त्री अपने पति को परमेश्वर मानती हैं। पर जाने अनजाने मिस्टर कह देती हैं।
5 Uncle और Aunty उनके पास ले देकर बस यही शब्द है और कुछ रिश्ता नहीं चाहे मामा-मामी, चाचा-चाची,काका-काकी ,फूफा-फुआ या पड़ोसी सबके लिए Uncle और Aunty शब्दों का ही प्रयोग करते हैं। इनके पास शब्द नही हैं और न ही इनका रिश्ता साफ है।
6 MAMMI , ये शब्द का मतलब मरी हुई स्त्री होती है।और हम जिंदा माँ को बार-बार मरने के लिए बोलते है।
7 DAD, इसका मतलब होता है मरे हुए जैसा तो क्या हम अपने घर के अन्नदाता को मरा हुआ मानते हैं ?
ऐसे कई निरर्थक शब्द है जिनका प्रयोग हम जाने अनजाने करते हैं।इन सब का एक ही उपाय है ।हम अंग्रेजी को त्याग हिंदी को अपनाने का संकल्प लें। वरना देश पूरी तरह से पश्चिमी सभ्यता की ओर बढ़ जाएगा। और इसे हमें किसी भी हाल में रोकना होगा।वरना भारत देश का गौरवशाली इतिहास खत्म हो जाएगा।।
आधुनिक समय में पूरे विश्व के बड़े – बड़े देश अपना रेडियो स्टेशन खोल रहे हैं जो हिंदी का चैनल प्रसारण कर रहे हैं ,जैसे -फ्राँस, जर्मनी, स्पेन ,बेलजियम और भारत के सबसे घोर विरोधी देश चीन ने भी हिंदी का रेडियो स्टेशन सुरु कर दिया है। जो भारत देश का रेडियो स्टेशन से भी ज्यादा अच्छा सुना जाता है। परन्तु ये हमारा दुर्भाग्य है कि हमारा देश अंग्रेजी भाषा पर मोहित है।
नेता अपना भाषण , अभिनेता अपनी फिल्म, गायक अपनी गीत हिंदी भाषा का प्रयोग कर अपना नाम कमाते है। यहाँ तक कि दुनिया के अर्थशास्त्री कहते हैं कि- ‘अगर हिंदी भाषा के अनुसार देश का आकलन किया जाए तो देश का सालाना बजट 4 से 5 लाख करोड़ होगा’। फिर भी हिंदी भाषा को पूरे देश में लागू होने नहीं देना चाहते हैं। लेकिन किसी भी स्तर की शिक्षा हो उसकी प्राथमिक भाषा हिंदी ही होनी चाहिए।
अंततः इतना कहना चाहता हूँ कि देश को बचाना है तो हिंदी को पूरे देश में लागू करना होगा।वरना देश में गृह युद्ध स्थिति बन सकती है।चाहे वो कोरोना का महामारी हो या राजनीति में जाति और धर्म का प्रयोग। मैं हिंदी विकास मंच के माध्यम से देशभर में हिंदी का ऐसा प्रचार- प्रसार करूँगा कि अंग्रेजी जड़ से खत्म हो जाए। और जो अंग्रेजी को मनाने वाले हैं उनसे किसी प्रकार का कोई समाजिक रिश्ता ही नहीं रखना है। उनसे लोग भेदभाव करेंगे।जो देश में SC/ST से लोग करते हैं जो बिल्कुल नहीं होना चाहिए था।क्योंकि जाती वाद और पूंजीवाद को अंग्रेजी मानक लोगों ने ही बढ़ावा दिया है।इसलिए इनको बहुत जल्द इनका हर्जाना भरना पड़ेगा।।
जय साहित्य
देश को बचाना है,हिंदी को आगे लाना है
राज वीर शर्मा
हिंदी विकास मंच-संस्थापक