कहानी एक कविता की।
26 अप्रैल 2017,
इस शाम को कुछ ऐसा घटित हुआ जिसका कहीं न कहीं मुझे कब से इंतज़ार था, बाइज़्ज़त एक महिला के लिए कविता के रूप में अपनी कुछ भावनाऐं लिखी थी और इस शाम को पूरे सम्मान के साथ वो कविता उन्हें दे दी। अगस्त 2015 से जो उन्हें देखने का सिलसिला शुरु हुआ वो लगभग ढाई साल तक जारी रहा, ना कभी कोई बात ना कभी कोई मुलाकात हुई, बस कभी अगर कोई त्यौहार आता, तो मैं ही उन्हें बधाई देने की कोशिश करता था।
ग़ौरतलब बात ये है कि उन्होंने ने कभी किसी बात की पहल नहीं की, हाँ मगर मेरी बात का जवाब उन्होंने हमेशा दिया,4-6 महीने बीतने के बाद मैने एक एहसास अपने अंदर पनपते देखा जिसकी मैं कभी कल्पना किया करता था, एक ऐसा एहसास जो कभी किसी स्वार्थ से बंधा नहीं था।
बिना किसी गलत भावना के केवल एक सम्मान से सजी अनुभूति मैंने पहली बार महसूस की थी किसी महिला के लिए,हालांकि उनसे दूर-दूर तक मेरा कोई सीधा संबंध नहीं थाऔर वास्तविकता ये थी कि कोई संबंध संभव भी नहीं था।
जो कविता मैंने उन्हें दी थी उसे लिख तो मैंने बहुत पहले ही दिया था पर सोचता था कि ऐसा शायद असल जीवन में नहीं होता होगा कि सिर्फ किसी को देख लेने भर से ही पूरा दिन बन जाए और एक झलक से ही संपूर्णता का अहसास हो। एक ऐसा अहसास जिसे शब्दों में नहीं कहा जा सकता, मेरे मन में बस एक ही इच्छा थी कि कल्पनाओं से कुछ शब्द मिलाकर जिनके लिए कविता लिखी है, वो उन्हें दे दूं और जिस दिन वो कविता उन तक पहुंची मानो जैसे दिल के किसी कोने को ऐसी ठंडक मिली कि अब इससे ज्यादा मुझे और कोई उम्मीद नहीं थी।
उनके प्रति मेरी भावना हर स्वार्थ और हर बंधन से मुक्त थी,सम्मान की वो अनुभूति सुखद और अतुलनीय थी बात ही कुछ अलग थी उनकी, पल भर की एक झलक का विस्तार शब्दों में नहीं किया जा सकता, छठे-छमासे अगर उन से कभी कोई नमस्ते-दुआ हुई तो हुई नहीं तो वो भी नहीं हो पाती थी,ये इतना खूबसूरत अहसास है जिसे कह पाना मुश्किल है।उनके प्रति मेरा ये भाव तो बस नदी का एक बहाव था,एक ऐसा बहाव जिसमें सारा जीवन मग्न हो कर बहा जा सकता है, उन महिला को मेरा दिल से शुक्रिया एवं सादर प्रणाम जिन्होंने मुझे अंजाने में ही सही लेकिन निस्वार्थ अनुभूति का अनुभव कराया।
अगर इस ब्रह्मांड में ईश्वर रूपी कोई शक्ति है तो उस शक्ति से मेरी यही प्रार्थना है कि आज वो महिला जहां कहीं भी हो बहुत खुश हों और उनका आने वाला जीवन भी तमाम खुशियों से सजा हो। और अंत में बस इतना ही कि यही संपूर्ण यथार्थ है,जो भी है निस्वार्थ है।
-अंबर श्रीवास्तव