कहाँ हो जानम!
कहाँ हो जानम!
तुम्हें चाँद पे ढूँढू या फिर सूरज के मकान पर ढूँढू,
ढूँढू तूम्हें समंदर की मौजों में या फिर साहिल के मचान पर ढूँढू?
ना तुम चकोर हो,ना तुम किरणों का शोर हो,
ना तुम सफीना हो,ना तुम कश्ती का नगीना हो,
फिर तुम्हे क्यों ढूँढू?
तुम्हें बादलों के गाँव में ढूँढू या फिर घटाओं की गलियों में ढूँढू,
ढूँढू तुम्हे आसमां की दीवारों पर या फिर आकाशगंगा की
रंगरलियों में ढूँढू?
ना तुम बारिश हो,ना तुम तूफ़ान हो,
ना तुम सितारे हो,ना तुम सैयारे हो,
फिर तुम्हें क्यों ढूँढू?
तुम्हें पहाड़ों के पड़ावों में ढूँढू या फिर नदियों के बहावो में ढूँढू,
ढूँढू तुम्हें चरागाह की प्याली में या फिर खेतों की हरियाली में ढूँढू?
ना तुम चढाई हो,ना तुम उतराई हो,
ना तुम गडरिये हो,ना तुम फसलों की चटाई हो,
फिर तुम्हें क्यों ढूँढू?
तुम्हें लफ्ज़ो में ढूँढू या फिर मिसरे में ढूँढू,
तुम्हें शेर में ढूँढू या फिर ग़ज़लों के जज़ीरे में ढूँढू,
ना तुम उनवान हो,ना कोई कलाम हो,
ना तुम नज़्म हो,ना कोई बज़्म हो,
फिर तुम्हें क्यों ढूँढू?
ये सोचते-सोचते कि मैं तुम्हें कहाँ ढूँढू,
मुझे याद आया कि मैंने तुम्हें अपने दिल की तिज़ोरी में
सहेज कर रखा है,
अपने जज़्बातों को तुम्हारे लिए समेट कर रखा है,
तुम्हें पाकर खोया है खुदको,
तुमसे एक हसीन रिश्ता बनाये रखा है।
कहाँ हो जानम -ये सवाल अब बेतुका सा लगता है
क्योंकि तुम दिल में हो जानम,
धड़कनो में बसर करते हो,
लहू से बहते हो रोम-रोम में,
तुम हम पर दुआओं सा असर करते हो।
सोनल निर्मल नमिता