कशमकश का दौर
पता नहीं क्यों बस मन कुछ अजीब सा है,
जैसे किसी असह्य भार तले दबा हो
ऐसे हृदय थमा सा जा रहा है
और प्राण कसमसा रहे है ।
कोई घनी पीड़ा नहीं, न ही अस्वस्थ हूँ
बस ये ठहरी सी जिन्दगी
समय के साथ दौड़ न पा रही ।
पाँव और मन दोनो काँप रहे
कहीं मैं पीछे छूट गई और सब आगे बढ गए
तो मैं रास्ता कैसे खोज पाऊँगी ?
खोज भी पाऊँगी या सब हार जाऊँगी।
बस ये अकेले छूटने का भय
मुझे भीतर-भीतर मिटा रहा है।
भाग्य की विडम्बना नहीं तो क्या है ?
जीवन के सारे स्रोत मेरे आस-पास हैं
नहीं है तो बस उन पर अधिकार ।
तुम मुझे अकर्मण्य समझ सकते हो
क्योंकि विवशताओं के पाश अदृश्य है ।
ये मुझे तिल भर डिगने नहीं देते
बस मन कशमकश से छटपटा रहा है
स्वयं की सजीवता की पुष्टि के लिए ।