“कष्ट”
दोस्ती शब्द सुनते ही मैं अपने तमाम उन दोस्तों के बारे में सोचने लगती हूँ,जो कभी न कभी मेरे दोस्त थे।सोचते-सोचते मैं बचपन मे पहुँच जाती हूँ।कहते हैं न बचपन की दोस्ती सबसे निराली और निश्छल होती है।मेरी भी एक बचपन की दोस्त थी।मेरी उससे बड़ी गहरी दोस्ती थी।हर बात उससे जरूर शेयर करती थी।वह पढ़ाई मे खूब होशियार भी थी।पाँचवी कक्षा के बाद उसने स्कूल बदल लिया और इस तरह हम अलग हो गये।किन्तु मैंने उसे मन से कभी अलग नहीं किया था।गाहे ब गाहे मैं उसकी कुशलक्षेम पता करती रहती थी।हाँ,एक बात यह जरुर थी कि,जितना मैं उसे याद करती थी शायद वह उतना नहीं करती थी।क्योंकि,जब भी मिँने की कोशिश होती मेरी ही तरफ से होती थी,उसकी ओर से नहीं।पर उस उम्र मे मैंने इस बात पर कभी गौर नहीं किया।बहरहाल, हमारी दोस्ती दूर रहकरभी चल रही थी।कम -अज-कम मेरी साइड से तो चल ही रही थी।
समय व्यतीत होता गया और तीन साल निकल गये और फिर एक इत्तेफ़ाक़ ये हुआ कि,मेरा दाख़िला भी उसी स्कूल मे करवा दिया गया जहाँ मेरी मित्र पहले से पढ़ रही थी। मैं नये स्कूल आकर इस बात से बहुत खुश थी कि,मुझे मेरी प्रिय दोस्त फिर से मिल गयी थी।जब मैं उससे मिली तो उसके चेहरे पर वैसी खुशी नहीं थी जैसा कि मैं कल्पना कर रही थी।पर मैं बोड़मदास उस वक्त कहाँ ये सब नोटिस कर पाई।खैर,वक्त फिर तेजी से बीतने लगा।वह पढ़ाई मे अच्छी थी,जैसा कि मैने पहले भी बताया।उसने पीसीएम से ग्रेजुएशन किया और उच्चशिक्षा के लिए देश की राजधानी दिल्ली चली गई। वह वहाँ जाकर फैशनडिजाइनिंग का कोर्स कर रही थी।जैसा कि उसकी माताजी से मैने पता किया।वह न अपना कोई पता देकर गयी थी न फोन नंबर तो मैं उसके घर से उसका पता और फोननंबर लेकर आयी थी और एक दिन मैने उसे एक पत्र लिखा।तकरीबन एक महीने बाद उसका जवाब आया।मैने उसे बताया कि मेरा ग्रेजुएशन ह़ चुका है और मैं कुछ दिनों के लिए भाई के पास दिल्ली आने वाली हूँ।उसने खुशी ज़ाहिर की और मिलने आने का न्यौता दिया। मैं खुश होकर उससे मिलने पहुँची।
हम गर्मजोशी से एक दूसरे से मिले।उसने मुझे जोर देकर अपने रूम मे रुकने पर जोर दिया।मैने भी खुशी खुशी उसकी बात मान ली।इन दिनों वह किसी एडकम्पनी मे रिसेप्शनिस्ट का जॉब करने लगी थी।मुझे उसका वो जॉब कुछ जमा नहीं तो इस बाबत उससे सवाल किया कि,”पहले तो पढ़ाई तूने गणित विषय से की फिर फैशनडिजाइनिंग मे घुस गयी और अब जॉब कर रही है रिसेप्शनिस्ट की…?”कहती थी,जब तक कोई अच्छी नौकरी नहीं मिलती फिलहाल के लिए ये जॉब कर रही हूँ।
बहरहाल,दिन बीतते गये और मैं थोड़े दिन भाई के पास जाती थी और फिर उसके पास आ जाती थी।वह भी मुझे कहती थी कि,मैं उसके पास ही रहूँ।हम दोनों सनडे कभीकभी घूमने जाते।मैं खुश थी कि,मेरी दोस्त कितनी अच्छी है ,मुझे कितना प्यार करती है,तभी तो जोर देकर अपने पास रोक लेती है।
वह सुबह जल्दी उठकर अपना नाश्ता और टिफिन बनाकर ले जाती थी और मेरे लिए दो रोटी का गुंथा हुआ आटा छोड़कर चली जाती थी।मैं जब उठती थी,तब अपनी रोटी बना लेती थी।उसका पैमाना इतना नपा तुला होता था कि उस आटे से कभी तीसरी रोटी बनी ही नहीं।अब मुझे दिल्ली मे तीन चार महीने हो गये थे।
मैं संगीत सीखना चाहती थी और इसके लिए कोशिश कर रही थी।इन्हीं दिनों एक दिन मेरे भैया मुझे लेने आये।उनका इस तर। अचानक मुझे लेने आना मुझे संशय मे तो डाल रहा था लेकिन मैने कुछ पूछा नहीं।मैं भाई के साथ उसकज घर चली गयी।फिर एक दिन जिस कॉलोनी मे हम रहते थे,वहीं एक संगीतमास्टर से भेंट हुई और मैं उनसे संगीत सीखने लगी।इस तरह छह महीने बीत गये।फोन पर कभी कभार मैं अपनी दोस्त से बात कर लिया करती थी।फिर एक दिन घर से बुलावा आया और मैं घर चली गयी।मेरी सगाई की बात चल रही थी।सगाई के कुछसमय बाद ही मेरी शादी भी हो गयी।शादी मे मेरी वह दोस्त भी आई थी।
मेरी शादी को दो वर्ष बीत गये।अब मेरी एक वर्ष की बिटिया है।एक दिन मैं अपने मायके मे थी।माँ और मैं दोनों बातें कर रहे थे।बातों-बातों मे मेरी उस दोस्त नम्रता का जिक्र आया।माँ ने बताया कि,वर्षों पहले जब मैं दिल्ली गयी हुई थी,तब एक दिन निम्मी(नम्रता) की मम्मी हमारे घर आई थी।माँ को आश्चर्य हुआ कि निम्मी की मम्मी हमारे घर कभी नहीं आती थी।हम पड़ोसी भी नहीं थे फिर आज क्यों आई है..?माँ इसी ऊहापोह मे उनके लिए पानी लेकर आई।पानी पीते हुये नम्रता की मम्मी ने जो माँ से कहा उसे सुनकर ही माँ ने तुरन्त भाई को फोन कर कहा था कि, वह सुनीता याने मुझे उसके घर से अपने घर लज आये।दरसअल,निम्मी की मम्मी ने माँ से कहा था कि,उनकी बेटी इतने बड़े शहर मे रहती है जहाँ बहुत महंगाई है।अपना ही खर्चा चलाना मुश्किल होता है,ऐसे मे अगर साथ मे कोई और भी रहने लगे तो खर्चे बढ़ जाते हैं।वगैरह…वगेरह…बस यह सुनते ही माँ ने तुरन्त मुझे वापस बुला लिया था।
मेरी दोस्त को मेरी नज़र मे अच्छी बने रहने के लिए अपनी माँ का सहारा लेना पड़ा।इसका मुझे अफ़सोस होता है।यदि मैं स्वयं समझदार होती तो उसे इतने कष्ट तो न उठाना पड़ता।