कश्मीर नज्म
कैसे कहते हो जन्नत के जैसी हूँ मैं,
आके तुम देखलो कैसी लगती हूँ,
हर तरफ गोलियों की ही आवाज़ है,
जिसमें अपनों को ही लेके सिमटी हूँ मैं,
आओ तुम को सुनाती कहानी हूँ मैं,
कैसे कहते हो जन्नत के जैसी हूँ मैं…
अब न जन्नत के जैसी हूँ लगती सुनो,
जुल्म हर रोज़ हूँ हाँ मैं सहती सुनो,
रोटियों की जगह खाती हूँ गोलियां,
खून की नदियां है रोज़ बहती सुनो
बनके अब पूछती एक सवाली हूँ मैं,
कैसे कहते हो जन्नत के जैसी हूँ मैं…
है उजड़ सा गया मेरा ये गुलसिताँ,
मेरे बच्चे भी अब मुस्कुराते नही,
खून की होलियां रोज़ हम खेलते,
दिन खुशी के मेरे घर में आते नही,
जैसे अब बे बसी की निशानी हूँ मैं
कैसे कहते हो जन्नत के जैसी हूँ मैं…
एक मुद्दत से बस गम का माहौल है,
एक मुद्दत से खुशियां मनाई नही,
नाम मेरा है कश्मीर बस नाम का,
रौशनी मेरे चेहरे पे आई नही,
अपने ही वास्ते अब पराई हूँ मैं
कैसे कहते हो जन्नत के जैसे हूँ मैं…
✍️ शाह आलम हिंदुस्तानी