कशिश
परिस्थितियां कुछ भी हो
ख्वाहिशें पूरी हो ही जाती
जो मस्तिष्क के लकीरों में
उत्कीर्णित बिछी हुई रहती
उत्कृश्ट को कहो क्या ?
क्यारी भी नीर के प्यासे हैं
आकृति तो आकर्षणों में
लिपटीं रहती गुड़ चिऊँटी सी
मानता हूँ मैं रहूं या नहीं
पर अंतर्ध्यान हो जाऊं
पर कोई है द्वन्द्व को, संघर्ष को
संयोग बनता नहीं किसी को
क्या मनुष्यतत्व में है जैसे नर
थी रूप सौन्दर्य पर वित्त नहीं
पूछता नहीं कोई चाहे खोई रात
रहस्यमय तो नहीं ये ही यथार्थ
प्रेम तो यौवनारंभ है स्त्रियों से
शरीर है आलिंगन को तड़प
न मिले तो देह संतुष्ट नहीं
और उच्चाह भरे पुरूष से
हो स्वं के विपरीत लिंग कशिश