कवि और केंकड़ा
कवि और केंकड़ा
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अनुकरण
कोई बाग पनपे तो,पनपे कहां से गुरू ,
जब कोई फूलों में जहर लाके सींचता।
एक की प्रगति देख दूसरा जलन करे,
दिन रात बैठा बैठा, आॉंतें ही उलीचता।
ऊपर उठे तो कोई, कैसे उठे मुश्किल है,
उसका ही साथी टांग,पकड़के खींचता।
अपने ही साथी को गिराने में आनंद पाये,
केकड़े ने कवियों से सीखी यह नींचता।
संदेह अलंकार
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करे नहीं चिंतन मनन स्वाध्याय कभी,
दूसरे की ग़ल्ती देखे नजरें गड़ा गड़ा।
खुद अपने लिये करेगा कोई काम नहीं,
दूसरे की प्रगति में संकट उसे बड़ा।
चढ़ा कोई ऊपर तो, पकड़के टांग खींचे,
साथी को गिराने देता, पूरा ही सीना अड़ा।
देख देख कृत्य यह समझ में आता नहीं,
केकड़ा कवि बना या, कवि बना केकड़ा।
अतिशयोक्ति
लपक लपक लट, खींचे काव्य कामिनी की,
मानों दुःशासन कोई, सभा बीच लागे है।
शब्द अर्थ भाव गति ,यति सभी में प्रवीण,
तर्क से निकाले अर्क, गोलियाॅं सी दागे है।
अपने सिवाय कोई,और न पसंद उसे,
व्यंजना बेचारी देख, दूर से ही भागे है।
टाॅंग खींचने में भले, केकड़ा भी कमी करे,
कुंठित कवि तो सदा, केंकड़े से आगे है।
परिचय
किसी की कमान पर चढ़कर चल जायॅं,
हम ऐंसे पैने कोई सायक भी नहीं हैं।
धंधा और चंदा दोनों जानते जरा भी नहीं,
कलियों पै अलियों से गायक भी नहीं हैं।
जनकवि युगकवि महाकवि बड़े कवि,
नहीं हैं,व उनके सहायक भी नहीं हैं।
शब्द अर्थ भाव छंद सीखने में लगे हुए,
अभी कवि कहलाने लायक भी नहीं हैं।
गुरू सक्सेना