#कविता-
#कविता-
(हिंदी दिवस पर विशेष)
■ निर्वासित मां…।।
【प्रणय प्रभात】
एक दुखियारी मिली आंसू बहाती,
कर रही क्रन्दन करों से पीट छाती।
लग रहा था है कोई विपदा की मारी,
हाल पर उसके दु:खी थी भीड़ सारी।
मैं बढ़ा आगे ये पूछा कौन हो तुम,
किसलिए रोती हो क्या कुछ हो गया गुम?
बोल हमदर्दी के सुन कुछ चैन आया,
उसने ऊपर को तनिक चेहरा उठाया।
कह दिया उसने मुझे मेरे सताते,
मां हूं फिर भी ठोकरें मुझको लगाते।
मेरे घर में ही मेरी इज़्ज़त नहीं है,
मुझ सी दुखियारी कोई औरत नहीं है।
मैं भी मां हूं अनगिनत है लाल मेरे,
फिर भी मेरी ज़िंदगी में हैं अंधेरे।
कह उठा मैं तब ‘तू आंसू पोंछ माता,
मैं सहारा हूँ तेरा सौगन्ध खाता।
बात ये मेरी सुनी रोने लगी वो,
अपना दामन अश्रु से धोने लगी वो।
कह उठीं मुझसे ना ये सौगन्ध खा तू,
मुझ अभागी को न अपनी मां बना तू।
ऐसा मत कह अन्यथा पछताएगा तू,
ज़िंदगी भर ठोकरें ही खाएगा तू।
मुझको मेरे हाल पर तू छोड़ जा रे,
तुझ से कहती हूं न मेरे पास आ रे।
तूने मुझसे प्यार जतलाया बहुत है,
अश्रु पूछे धीर बंधवाया बहुत है।
आज मुझ पर हो गया कुछ कर्ज़ तेरा,
तुझको दूं आशीष ये है फ़र्ज़ मेरा।
चाहती तो हूं मुझे अपनाए कोई,
पर ये कैसे चाहूं ठोकर खाए कोई।
उसकी इस दारुण दशा पर क्षुब्ध था मैं,
कुछ न समझा मन ही मन स्तब्ध था मैं।
भावना के ज्वार में अब बह उठा मैं,
कौन है मां ये बता दे कह उठा मैं।
सुन सकेगा नाम मेरा कह उठी वो,
आग की लहरों में जैसे बह उठी वो।
फट पड़ा हो जैसे ये आकाश इक दम,
नाम सुनकर ये लगा हो जाऊं बेदम ।
आंख में आंसू लिए स्वर में निराशा,
जब कहा उसने कि ‘”मैं हूं राष्ट्रभाषा’|।”
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●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)