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3 Jul 2024 · 1 min read

कविता

छाँव पर धूप
अगर भारी है
समझ लो
आ रही बीमारी है
कोढ़ में ख़ाज की तरह वारिश
हो गयी ग़र
तो कहर जारी है
तमीज़ देखते रहे जिसकी
उसी ने
बस निभाई यारी है
पहाड़ ,पेड़ ,नदी और जंगल
उदास हैं बड़ी
लाचारी है
तौलता हमको रहा वो अक्सर
जो कि ज़ज्बात का
व्यापारी है
शाख से टूटता कोई पत्ता
निभा रहा जमीं से
वफादारी है
‘महज़’ उम्मीद उसी से अब है
जिसकी हर चाल
जिम्मेदारी है

Language: Hindi
1 Like · 100 Views
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