कविता
दुर्मिल सवैया
गरजे बरसे न कभी वदरा अपना बस रूप दिखावत है।
भयभीत भले करता चलता पर नीर कभी न गिरावत है।
चमके दमके बमके घनघोर घुमे वह भाव बनावत है।
डरवावत झूठ चला करता अपना मुँह पीटत भागत है।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
दुर्मिल सवैया
गरजे बरसे न कभी वदरा अपना बस रूप दिखावत है।
भयभीत भले करता चलता पर नीर कभी न गिरावत है।
चमके दमके बमके घनघोर घुमे वह भाव बनावत है।
डरवावत झूठ चला करता अपना मुँह पीटत भागत है।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।