कविता
प्यार की गरिमा
मापनी: 2122, 2122, 212
(कुल 19 मात्रा भार)
प्यार से यदि डर गये तो मर गये।
जो किये अपमान चित से गिर गये।
हो सदा सम्मान दिल से प्यार का।
जो किये सत्कार मन में घिर गये।
शब्द सुन्दर भाव शिवमय दिव्य धन।
जो किये स्वीकार शिव के घर गये।
छांव शीतल सुखप्रदा मधु प्यार है।
जो रहे इसके तले वे भर गये।
जीत कर इस तत्व को मन ब्रह्म है।
हारते मानव हमेशा जर गये।
शुभ सुखद आत्मिक सरोवर नीर यह।
पान करते ज़न जगत से तर गये।
मय सरिस यह है नशीली भावना।
शुद्ध मन से पी रहे जो रम गये।
अति अमुल तासीर इसकी मोहिनी।
जो लगे इसके गले वे थम गये।
नाभि में इसके महत अमृत कलश।
जानते जो इस मरम को जम गये।
गंध मादक खींचती अपनी तरफ।
प्यार की आवाज सुन सब भ्रम गये।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
क्रूर हृदय को शीतल करना (मुक्तक)
इतना क्रूर कभी मत बनना।
मानवता को जिंदा रखना।
मीत बनाकर त्याग दिया तो।
लगता जैसे हिंसा करना।
मित्र बनाकर नहीं रुलाओ।
बेकसूर को मत तड़पाओ।
बनो रहमदिल ठोकर मत दो।
दया धर्म की राह बनाओ।
मानव हो कर हार न मानो।
अपनी आत्मा को पहचानो।
दुख को काटो प्रेम सुधा पी।
क्रोध पाप है इसको जानो।
द्वेष भाव को मत चढ़ने दो।
कृपा वृत्ति को नित बढ़ने दो।
उर को सरस शांत करना है।
मन में मधु अमृत भरने दो।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
अहिंसा (अमृत ध्वनि छन्द )
हिंसक बनना पाप है,बनो अहिंसक मीत।
गायन वादन प्रेम का,जीवन हो संगीत।।
जीवन हो संगीत,मधुर रस,बहता जाये।
स्नेह मगन हो,हृदय गगन हो,खिलता जाये।।
हर मानव हो,मानवता का,पावन चिंतक।
बने नहीं वह, कभी विषैला , दूषित हिंसक।।
हिंसक विषधर सर्प का,करो सदा संहार।
जो इसको है मारता,उसका हो सत्कार।।
उसका हो सत्कार,प्यार से,स्वागत करना।
सदा अहिंसा,पुण्य पंथ पर,चलते रहना।
कुंठित कुत्सित,खूनी कामी,दोषी निंदक।
करता रहता,नीच कृत्य को,हरदम हिंसक।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
मुसाफिर
चला मुसाफिर गांव घूमने,घर घर अलख जगाना है।
हर दरवाजे पर जा जा कर,सबसे हाथ मिलाना है।
स्नेह मिलन का आमंत्रण दे,सब का दिल बहलाना है।
द्वेष भाव का परित्याग कर,पावन सरित बहाना है।
ऊंच नीच का भेद मिटाकर,एक साथ ले आना है।
बनें सभी सुख दुख के साथी,सम्वेदना जिलाना है।
होय समीक्षा ग्राम जनों की,सबको शुद्ध बनाना है।
हारे मन को मिले सांत्वना,सबका गौरव गाना है।
सब की कुंठा हीन भावना,को अब दूर भगाना है।
नहीं शिकायत मिले कहीं से,सब पर तीर चलाना है।
सबका हो उत्कर्ष गांव में,श्रम का मर्म बताना है।
यही मुसाफिर का मजहब है,उत्तम कदम उठाना है।
जो करते रहते हैं निंदा,उनको साफ कराना है।
अपना अपना काम करें सब,उन्नत पंथ दिखाना है।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
मां भारती
असीम शांत आत्मनिष्ठ ज्येष्ठ श्रेष्ठ भारती।
प्रवीण वीणधारिणी प्रताप पुंज भारती।
शुभा सुधा सरस सजल सलिल सरोज भारती।
सदा सुसत्य स्वामिनी सुहाग सिन्धु भारती।
सुप्रीति गीति गायिका सुनीति रीति भारती।
अनंत सभ्य सुंदरी विराट ब्रह्म भारती।
महा गहन परम विशाल दिव्य भाल भारती।
असीम व्योम अंतरिक्ष प्यार माल भारती।
सुशब्द कोष ज्ञान मान ध्यान शान भारती।
मधुर वचन अजर अमर अगाध आन भारती।
सहानुभूति धर्म ध्येय स्नेह बान भारती।
बनी हुई सप्रेम सर्व प्राण जान भारती।
कलावती कवित्त कर्म मर्म नर्म भारती।
विजय ध्वजा पुनीत हाथ धीर धर्म भारती।
प्रथा पवित्र स्थापना सुकृत्य कर्म भारती।
विवेकिनी विचारिणी सहंस गर्म भारती।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
जिसे पीना नहीं आता (विधाता छन्द : मुक्तक)
जिसे पीना नहीं आता,वही पीना सिखाता है।
जिसे जीना नहीं आता,वही जीना सिखाता है।
बड़ा बदलाव आया है,जरा देखो जरा सोचो।
नहीं जो चाहता देना,वही लेना सिखाता है।
हवा है घूमती उल्टी,हया बेशर्म सी होती।
मजे की बात देखो तो,दया भी धर्म को खोती।
सभी चालाकियों में जी,नजारे देखते जाते।
लगे आलोचना में हैं,अँधेरी रात है रोती।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
मन करता है (चौपाई)
मन करता है कुछ लिखने का।
कुछ करने का कुछ कहने का।
नहीं जानता क्या लिखना है?
क्या करना है क्या कहना है?
लिखना है इक दिव्य कहानी।
करना नहीं कभी नादानी।।
कहना है, बन जाओ सच्चा।
उत्तम मानव सबसे अच्छा।।
लिखना है तो प्रेम पत्र लिख।
कान्हा जैसा जीवन भर दिख।।
करना निर्मित प्रेम पंथ है।
कहना सुनना सत्य ग्रंथ है।।
अमर कथा रच कर जाना है।
दुष्ट कृत्य से बच जाना है।।
शुभ लेखन उत्तम करनी हो।
मधुर रम्य मोहक कहनी हो।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
गरिमा (अमृत ध्वनि छंद )
गरिमा अपनी जो रखे,मानव वही महान।
जिसको अपना ख्याल है,उसे आत्म का ज्ञान।।
उसे आत्म का ज्ञान,विवेकी,गौरवशाली।
स्वाभिमान है,सुरभि गान है,वैभवशाली।।
रिद्धि सिद्धियाँ,साथ सदा हैं,गाती महिमा।
उत्तम मानव,के मन उर में,शोभित गरिमा।।
गरिमा को पहचान कर,देना इसे महत्व।
अतिशय आकर्षक सदा,उत्तम मोहक सत्व।।
उत्तम मोहक सत्व,सहज प्रिय,बहुत लुभावन।
यही योग्य है,सदा प्रदर्शन,करती पावन।।
यह है सुन्दर,शब्द मनोहर,मंगल प्रतिमा।
इसका रक्षक,बनकर शिक्षक,पाता गरिमा।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
डॉक्टर रामबली मिश्र: एक परिचय
प्रख्यात साहित्यकार एवं समाजशास्त्री डॉक्टर रामबली मिश्र मूलतः वाराणसी के निवासी हैं। आप बी. एन. के. बी. पी. जी. कालेज अकबरपुर, अंबेडकर नगर में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर रहे हैं। आपके मार्गदर्शन में समाजशास्त्र विषय में 25 शोध छात्र पीएच. डी. कर चुके हैं, तथा आपके हिंदी काव्य पर अब तक तीन पीएच. डी. हो चुकी है।
हिंदी जगत में आपकी निरंतर सारस्वत साधना चल रही है। आपकी अब तक 25 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकीं हैं और 20 पांडुलिपियां प्रकाशनाधीन हैं।
प्रेषक: डॉक्टर रामबली मिश्र, वाराणसी।
सत्ता की भूख (कुंडलिया )
सत्ता पाने के लिए,दौड़ रहा इंसान।
चिंता करना काम है,किंतु न होता ज्ञान।।
किंतु न होता ज्ञान,नरक में जीता कामी।
धन दौलत पद धाम,चाहता बनना नामी।।
कहें मिश्र कविराय,मनुज नित खोले पत्ता।
थक कर चकनाचूर,परन्तु लक्ष्य है सत्ता।।
सत्ता जीवन मूल्य ही,नेता का संस्कार।
मतदाता के पैर पर,इनका है अधिकार।।
इनका है अधिकार,रात दिन कोशिश करते।
पागलपन की चाल,भूख से पीड़ित रहते।
कहें मिश्र कविराय,बिना सत्ता के लत्ता।
मुँह की खाते नित्य,नहीं जब मिलती सत्ता।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
तेरी जुदाई
तेरी जुदाई सदा सालती है।
बोझा हृदय पर बहुत डालती हैं।
निद्रा हुई रुष्ट ग़ायब कहीं है।
टूटा हुआ मन सहायक नहीं है।
प्यारे! तुम्हीं इक हमारे सजल हो।
झिलमिल सितारे मधुर प्रिय गज़ल हो।
बाहें छुड़ाकर कहाँ जा रहे हो?
निर्मोह हो कर विछड़ जा रहे हो।
बचपन बिताये रहे साथ में हो।
खेले बहुत हो पढ़े साथ में हो।
तेरी जुदाई बहुत खल रही है।
लाचार मंशा सतत रो रही है।
पा कर तुझे स्वप्न पूरा हुआ था।
तेरे बिना सब अधूरा लगा था।
वादा करो तुम यथा शीघ्र आना।
करना नहीं है कदाचित बहाना।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
महकता हुआ मन (मुक्तक)
बहाने बनाकर चले आइयेगा।
महकता हुआ मन सदा पाइयेगा।
नहीं है अँधेरा उजाला यहाँ है।
रतन के सदन में सदा जाइयेगा।
सुगंधित हवा का मधुर पान होगा।
सदा स्वच्छ निर्मल अभय दान होगा।
सहज सत्य सुरभित सरोवर दिखेगा।
अहिंसक मनोवृत्ति का ज्ञान होगा।
यहाँ उर चहकता दमकता दिखेगा।
अविश्वास का नाम मिटकर रहेगा।
यहाँ स्वर्ग साकार मन में उतर कर।
हृदय स्वर्ण प्रेमिल कहानी लिखेगा।
न डरना कभी तुम दहलना नहीं है।
बड़े चाव से बस चहकना यहीं है।
सुनहरा नगर य़ह बहुत दिव्य प्यारा।
बसा मन जहां में रसा तल यहीं है।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
श्री गणेश वंदना
श्री गणेश वंदना करो सदैव प्रेम से।
प्रार्थना अनन्य भाव से सुकर्म स्नेह से।
स्तुत्य आदि अंत तक प्रणाम विश्व धाम हैं।
श्री गणेश पूज्य धाम ब्रह्म रूप नाम हैं।
प्रीति पार्वती समेत शंभु सुत गणेश जी।
बुद्धिमान शुभ्र ज्ञान पालते महेश जी।
गजमुखी गजानना न विघ्न आस पास है।
सर्व हित सुकामना जगत समग्र दास है।
कामना समस्त पूर्ण यदि गणेश की कृपा।
नव्य नव नवल प्रभात है गणेश में छिपा।
शिव उमा पुकारते गणेश बुद्धिमान को।
कार्य सब शुरू करो लिये गणेश नाम को।
गणपती सदा सहाय मूषकीय वाहना।
घूमते सकल धरा हिताय सर्व कामना।
पूजते उन्हें हृदय सहित सुभक्तजन सदा।
पूर्ण करें कार्य सर्व श्री गणेश सर्वदा।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
तुम कौन हो? (सजल)
मैं महान हूँ सदा बहार हूँ।
सत्य सा विचर रहा सकार हूँ।
सत्य लोक ही निवास मूल है।
सत्यशील शुद्ध बुद्धवार हूँ।
जो नहीं समझ रहा रहस्य को।
जान ले रहस्य सत्य प्यार हूँ।
मौन हूँ सनातनी अमोल हूँ।
श्वेत शुभ्र शांत सभ्यकार हूँ।
झूठ को नकारता सुहाग हूँ।
प्रेम में पगा विनम्र धार हूँ।
ढोंग को नकारता चला सदा।
राह सर्व भाव पर सवार हूँ।
जोड़ना स्वधर्म मूल मंत्र है।
स्वच्छ भाव का सहज प्रचार हूँ।
जान ले अधीर मन सुधीर को।
धीर रस पीला रहा धकार हूँ।
मोर नृत्य कर रहा प्रसन्न हो।
चित्त चोर प्रेम चित्रकार हूँ।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
दिल शीशे सा (दोहे)
दिल शीशे सा दीखता ,इसमें प्यार अपार।
यही सृष्टि का सूत्र है,पावन रम्य विचार।।
पाक साफ य़ह है सदा,अति मोहक संसार।
इसके प्रति संवेदना,का हो नित्य प्रचार।।
महा काव्य का विषय यह,है अनंत विस्तार।
इसके मधुरिम बोल सुन,बन शिव ग्रंथाकार।।
जिसका हृदय महान है,वही राम का रूप।
सच्चे मन से राम भज,गिरो नहीं भव कूप।।
जो दिल से सबको लखे,रख ममता का भाव।
उसके पावन हृदय का,अमृत तुल्य स्वभाव।।
सबके दिल को प्रेम से,जो छूता है नित्य।
वंदनीय वह जगत में,अंतकाल तक स्तुत्य।।
दिल को जो है तोड़ता,वह करता है पाप।
जोड़े दिल को जो सदा,वह हरता दुख ताप।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
निकल पड़ा है
चाँद चूमने निकल पड़ा है।
चन्द्रयान तीन चल पड़ा है।।
छह बज करके चार मिनट पर।
दिख जाएगा यह चंदा पर।।
भारत की यह खुशखबरी है।
देशवासियों की सबुरी है।।
भारत विश्व तिरंगा लहरे।
दुश्मन देश हुए अब बहरे।।
“इसरो” का यह सफ़ल परीक्षण।
सर्वोत्तम वैज्ञानिक शिक्षण।।
स्वाभिमान है आसमान में।
यशोधरा है कीर्तिमान में।।
सकल जगत की टिकी निगाहें।
परम प्रफुल्लित भारत बाहें।।
आज चाँद पर लहर तिरंगा।
झूमे अंग अंग प्रत्यंगा ।।
मिलजुल कर अब नर्तन होगा।
मन्दिर में हरिकीर्तन होगा।।
भारत जगत विधाता होगा।
विश्व गुरू शिव ज्ञाता होगा।।
सारी जगती नतमस्तक हो।
भारत का सब पर दस्तक हो।
चीन रूस जापान अमरिका।
भारत बाबा दादा सबका।।
ज्ञानी भारत सबका गुरुवर।
छाया देता जैसे तरुवर।।
बेमिसाल भारत की महिमा।
सर्वविदित है इसकी गरिमा।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
अपने हुए पराये (सरसी छन्द )
अपने आज पराये दिखते,खिंची हुई तलवार।
पतला होता खून जा रहा,रिश्ता बंटाधार।।
स्पर्धा का है आज जमाना,अपनों से है द्वेष।
घर में ही मतभेद बढ़ा है,बहुत दुखी परिवेश।।
“तू तू मैं मैं” होता रहता,आपस में तकरार।
शांति लुप्त हो गयी आज है,नहीं रहा अब प्यार।।
नीचा दिखलाने के चक्कर,में है आज मनुष्य।
तनातनी है मची हुई अब,आपस में अस्पृश्य।।
स्वज़न पराया भाव लिये अब,नाच रहा चहुंओर ।
ऐंठ रहा बेगाना जैसा,पकड़ घृणा की डोर।।
विकृत मन का भाव चढा है,दूषित होती चाल।
स्वारथ के वश में सब रहते,आया य़ह कलिकाल।।
अपनापन हो गया निरंकुश,अपने हुए अबोध।
कायर हुआ मनुष्य कह रहा,करो प्रथा पर शोध।।
सुख की चाहत कभी न पूरी,कितना करो प्रयास।
अपनेपन के प्रेम जगत में,सुख का मधु अहसास।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[24/08, 16:10] Dr.Rambali Mishra: दुर्मिल सवैया
मन में जिसके अनुराग पराग सुहाग वही मनभावत है।
दिल में सब के प्रति नेह भरा सबको मन से अपनावत है।
दिखता अति हर्षित प्रेम प्रफुल्लित सादर भाव जगावत है।
पड़ती शुभ दृष्टि कृपा बरसे प्रभु दौड़ वहाँ तब आवत हैं।
जिसमें रमती जगती शिवता भव सागर ताल समान लगे।
उसके दिल में अभिलाष यही सबके प्रति शुद्ध स्वभाव जगे।
अपनेपन से य़ह लोक बने पर भेद मिटे शुभ राग पगे।
हित कारज़ हेतु रहे यह जीवन दुर्जन वृत्ति सदैव भगे।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
भगवान श्री राम (अमृत ध्वनि छन्द )
अमृत से भी दिव्य हैं,मेरे प्रभु श्री राम।
इनके नित गुणगान से,बनते सारे काम।।
बनते सारे काम,राम जी,ज़न हितकारी ।
महाकृपाला ,दीनदयांला, मंगलकारी।।
प्रेमनिष्ठ प्रिय,सज्जन के हिय,राम सत्यकृत।
इनको जानो,परम अलौकिक,अज मधु अमृत।।
अमृत जैसे बोल हैं,अमृतमय मुस्कान।
हाव भाव अति सरल है,स्वयं ब्रह्म भगवान।।
स्वयं ब्रह्म भगवान,नाम है,सारे जग में।
हैं अविनाशी,प्रिय शिव काशी,दामिनि पग में।।
असुर विरोधी,न्यायिक बोधी,शुभमय सब कृत।
अजर अमर हैं,वर धनु धर हैं,प्रभु नित अमृत।।
सबके प्रति संवेदना,सबके प्रति अनुराग ।
निर्मल भाव स्वरूप प्रिय,रामचन्द्र बड़भाग।।
रामचंद्र बड़भाग,हृदय से,गले लगाते ।
सब में उत्तम,पावन कोमल,भाव जगाते।।
शांत तपस्वी,सहज यशस्वी,प्यारे जग के।
राम नाम को,जपते रहना,प्रभु श्री सबके।।
जिसको प्रिय श्री राम हैं,वही भक्त हनुमान।
राम भक्ति में मगन हो,भागे जड़ अभिमान।।
भागे जड़ अभिमान,चेतना,प्रति क्षण जागे।
चले संग में,राम शक्ति ही,आगे आगे।।
हो अभाव सब,नष्ट हमेशा,सब सुख उसको।
हैं रघुनंदन,पावन चंदन,मोहक जिसको।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
नाग पंचमी (दोहे )
नाग देवता पूज नित,हो उनका सम्मान।
अर्चन वंदन अनवरत,सदा करो गुणगान।।
शिव जी करते स्नेह हैं,सदा गले में डाल।
शंकर जी के कंठ में,सहज सर्प की माल।।
नाग सहित शिव शंभु जी,पूजनीय हर हाल।
उन्हें देखकर काँपता,सदा सतत है काल।।
नाग पंचमी पर्व है,भारत का त्योहार।
नाग देवता खुश रहें,वंदन हो स्वीकार।।
उत्तम भावुक मधुर मन,है शंकर का रूप।
इसी भाव में ही दिखें,सारे सर्प स्वरूप।।
देख नाग को मत डरो,कर शिव जी का जाप।
मन निर्भय हो सर्वदा,कट जाये हर पाप।।
भोले नाथ करें कृपा,नाग बने मासूम।
जीव रहें निर्द्वंद्व सब,मचे प्रेम की धूम।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
मां सरस्वती जी की वंदना (अमृत ध्वनि छन्द )
जिसपर माता खुश रहें,वही वृहस्पतिपूत।
पावन लेखन मनन कर,अद्भुत बने सपूत।।
अद्भुत बने सपूत,सरस प्रिय,मोहक शोधक।
लेखक बनता,नाम कमाता,हो उद्घोषक।।
सारी जगती,पूरी पृथ्वी,रीझे उसपर।
माँ सरस्वती,कृपा वाहिनी,खुश हों जिसपर।।
रखना हम पर ध्यान माँ,भूल चूक हो माफ़।
मन में आये शुद्धता,उर उत्तम शुभ साफ।।
उर उत्तम शुभ साफ,सदा हो, निर्मल पावन।
होय अनुग्रह,तेरा विग्रह,अति मनभावन।।
मादक चितवन,ज्ञान रतन धन,मन में भरना।
अपनी संगति,दे माँ सद्गति,दिल में रखना।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
मनहरण घनाक्षरी
काम से अमर बनो,
नाम को अजर करो,
सत्य सत्व कामना से,
राष्ट्र को जगाइये।
देश को सरस करो,
लोक में हरष भरो,
प्यार की महानता से,
क्रूरता भगाइये ।
दुष्ट वृत्ति राख होय,
धर्म बीज भाव बोय,
संत की ऊंचाइयों से,
शिष्ट गीत गाइये।
प्रीति गान में बहार,
सर्व धर्म की बयार,
जुबान की मिठास से,
विश्व मान पाइये।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
चिट्ठी
मेरी आखों के आँसू को मत पोछो।
चाहे जैसे भी रहता हूं मत पूछो।।
चिट्ठी लिख कर हाल बताना मत चाहो।
खुश रहना आजाद रहो बस य़ह चाहो।।
मेरी आँखों के आँसू को मत पोछो।
चाहे जैसे भी रहता हूँ मत पूछो।।
उन्नति करना आगे बढ़ते चलना है।
इस जगती में बढ़ चढ़ करके रहना है।।
दिल के घावों के बारे में मत पूछो।
चाहे जैसे भी रहता हूँ मत पूछो।।
चिट्ठी पढ़ कर खुशहाली छा जाती है।
तेरे उपवन की लाली आ जाती है।।
हाल बताना अपना मेरा मत पूछो।
चाहे जैसे भी रहता हूँ मत पूछो।।
भेजा तुझको नाम कमाने की खातिर।
और जगत में अर्थ बनाने की खातिर।।
करना अपना काम नहीं कुछ भी पूछो।
चाहे जैसे भी रहता हूँ मत पूछो।।
चिट्ठी से ऐसा लगता है तुम खुश हो।
मैं खुश हूं यह जान बहुत ही तुम खुश हो।
छोड़ो मेरी बात कभी कुछ मत पूछो।
चाहे जैसे भी रहता हूँ मत पूछो।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
लावणी /कुकुभ/ताटंक छन्द
लावणी: (पदांत एक गुरु या दो लघु)
रहना सीखो सच्चाई से,नहीं बनोगे तुम कायल।
मूल्यवान केवल मानव वह, करे नहीं दिल को घायल।
बड़ा वही जग में कहलाता,जो सब के दुख को सहता।
क्म खाता है गम पीता है,फिर भी वह हंसता रहता।
कुकुभ: (पदांत 2 गुरु)
दिल को मन्दिर सदा समझना,शिव शंकर की यह काशी।
परम ब्रह्म ब्रह्माण्ड यही है,इसमें रहते अविनाशी।
हृदय चूमना मानवता का,यह पावन धर्म निराला।
अपरम्पार यहाँ खुशियाँ हैं,पीते रहना मधु प्याला।
ताटंक: (पदांत 3 गुरु)
उपकारी प्रिय भाव जहां है,वह मानव कहलाता है।
मधुवादी संवादी बनकर,सबको प्यार पिलाता है।
जीने का अंदाज बताता,सेवक बनकर जीता है।
मिलजुल कर रहता आजीवन,दुख की मदिरा पीता है।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
सियाराममय सब जग जानो (शुभांगी छंद)
सियाराममय,प्रिय मंगलमय,सारे जग को,जो जाने।
घट घट वासी,सत अविनाशी,को जो मानव,पहचाने।
रहता घर में,राम अमर में,राम चरित ही,शुभ गाने।
होता हर्षित,दिल आकर्षित,सियाराम अति,मन भाने।
शिव रामायण,का पारायण,नित्य करे जो,सुख पाये।
राम लीन जो,नहीं दीन वह,राम भजन को,नित गाये।
दिन रात रहे,प्रभु साथ गहे,हो अति निर्मल,हरसाये।
राम औषधी,हरते व्याधी,सकल अमंगल,मिट जाये ।
राम भजे से,कष्ट भगेगा,शांति मिलेगी ,सुखदायक।
देख राम को,सर्व रूप में,राम ब्रह्म हैं,ज़ननायक।
पूज उन्हीं को,छोड़ दूज को,राम चरण रज,शुभ दायक।
त्यागो शंका,जारो लंका,सियाराम जग,फलदायक।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
प्रभु राम दया के सागर हैं (सरसी छंद )
प्रभु राम दया के सागर हैं,रहे इन्हीं पर ध्यान।
करुणालय बन चलते रहते,करो हमेशा गान।
इनके आदर्शों पर चल कर,मिले राम का धाम।
जो प्रभु जी का चरण पकड़ता,उसके पूरे काम।
सुमिरन भजन करे जो हर पल,वह पाता विश्राम।
उसका मन उर पावन होता,सदा संग में राम।
संतों के दिल में रहते हैं,दया धर्म की नाव।
मन काया शीतल करते हैं,बन सुखकारी छांव।
सेबरी को प्रभु गले लगाते,दिल से दे सम्मान।
सारे जग को यही बताते,यह सर्वोत्तम ज्ञान।
धर्मवीर गंभीर सुधाकर,त्रेता युग के राम।
द्वापर के वे श्याम मनोहर,संग सदा बलराम।
वन में जा कर किये तपस्या,किये असुर संहार।
पापों से बोझिल पृथ्वी का,किये राम उद्धार।
वानर भालू की सेना ले,पाये महिमा राम।
बज़रंगी हनुमान संग में,जपते सीताराम।
शिला अहिल्या के तारक प्रभु,वनवासी से नेह।
रामचंद्र भगवान का,सकल धरा है गेह।
दिव्य वर्णनातीत राम जी,अहंकार से मुक्त।
शांत शील शुभ चिंतक साधक,परम तत्व से युक्त।
भजो राम को जपो हमेशा,कर भवसागर पार।
राम बिना हर जीव अधूरा,मिले उन्हीं का प्यार।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
पावन धाम राम सीता का (कुंडलिया )
पावन केवल राम जी,पावन करते राम।
सीताराम कहो सदा,मन पाये विश्राम।।
मन पाये विश्राम,मुक्त हो संघर्षों से।
कायिक मिटे थकान,भरे दिल प्रिय हर्षों से।।
कहें मिश्र कविराय,कभी मत रहो अपावन।
करो राम का पाठ,अगर बनना है पावन।।
निर्मल मन के आगमन,का देते उपहार।
ऐसे प्रभु के दरश से,हो अपना उपचार।।
हो अपना उपचार,सकल वासना नित भगे।
राम चरण से प्रीति,मानस हिय में सत जगे।।
कहें मिश्र कविराय,करो तुम खुद को उज्ज्वल।
होंगे राम सहाय,करेंगे तुमको निर्मल।।
रक्षक सब के राम प्रभु,लगे उन्हीं से नेह।
करो राम आराधना,त्याग सकल संदेह।।
त्याग सकल संदेह,राम ही उत्तम जग में।
करो भक्ति का योग,लेट जा उनके पग में।।
कहें मिश्र कविराय,राम हितकारी शिक्षक।
जाये विपदा भाग, राम तेरे हैं रक्षक।।
शिक्षा लो श्री राम से,वैर भाव को त्याग।
सुन्दर पावन भाव का,ज्ञान उन्हीं से माँग।।
ज्ञान उन्हीं से माँग,चलो संन्यासी बनकर।
माया को पहचान,विमुख हो इसे समझ कर।।
कहें मिश्र कविराय,माँग लो प्रभु से भिक्षा।
जगत सिन्धु से पार,कराती प्रभु की शिक्षा।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
शिव भज़नामृतम
शिव ही ब्रह्म स्वरुप हैं,देते रहते दान।
अवढरदानी शक्ति का,करो सदा यशगान।।
प्रभु जी!तू ही तो सरकार।
भजन बिना मन सूना सूना।
चिंतित प्रति क्षण हर पल दूना।।
हे भोले शिव!कर स्वीकार।
प्रभु जी!तू ही तो सरकार।।
सुना बहुत तुम आलमस्त हो।
देने में प्रभु, सहज व्यस्त हो।
करो भक्त को अंगीकार।
प्रभु जी!तू ही तो सरकार।।
सदा फकीरों सा रहते हो।
भक्तों से बातेँ करते हो।।
हो तेरा अनुपम दीदार।
प्रभु जी!तू ही तो सरकार।।
सकल लोक में पूजनीय हो।
साधु संत के वंदनीय हो।। सबका स्वयं करो उद्धार।
प्रभु जी!तू ही तो सरकार।।
हो अवधूत बहुत मनमोहक।
महा विज्ञ पंडित मन रोचक।।
परम अनंत दिव्य विस्तार।
प्रभु जी!तू ही तो सरकार।।
तुम्हीं सर्व मंगल कल्याणी।
सत्य बोलते अमृत वाणी।।
मन करता तेरा सत्कार ।
प्रभु जी!तू ही तो सरकार।।
आ दरवाजे दर्शन दे दो।
शरणागत की झोली भर दो।।
आ जा दीनबंधु साकार।
प्रभु जी!तू ही तो सरकार।।
घर घर में उत्पात मचा है ।
क्षण क्षण में आघात चला है।।
आओ बनकर शांताकार।
प्रभु जी!तू ही तो सरकार।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
श्री राम भजनावली
राम भजे से बल मिले,कटे शोक संताप।
हे नारायण राम जी,हरो सकल मम पाप।।
चारों धाम तुम्हीं हो प्रियवर,भवसागर से तार।
मोक्ष प्रदाता गुणवत्ता हो।
संत समागम अधिवक्ता हो।।
सर्वोत्तम अतिशय मन भावन,करते रहना प्यार।
चारों धाम तुम्हीं हो प्रियवर,भवसागर से तार।।
निर्गुण सगुण तुम्हीं हो प्यारे।
गुणातीत सद्गुण प्रिय न्यारे।।
ज्ञान निधान दिव्य अविनाशी,करना नैया पार।
चारों धाम तुम्हीं हो प्रियवर,भवसागर से तार।।
दुखियों के आलंब तुम्हीं हो।
दिये सहारा खंभ तुम्हीं हो।।
शक्तिहीन को सबल बनाते,तुम्हीं शक्त आधार।
चारों धाम तुम्हीं हो प्रियवर,भवसागर से तार।।
तुम अनाथ के नाथ एक हो।
विश्वनाथ आदित्य नेक हो। ।
प्रेम प्रीति नेह की धारा,तुम्हीं मधुर मधु ज्वार।
चारों धाम तुम्हीं हो प्रियवर,भवसागर से तार।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
रिश्ता (पिरामिड)
हे
मन
मधुर
रसमय
बनकर के
रिश्ते की डोर को
कभी मत छोड़ना।
हे
प्रिय
साक्षात
दर्शन दे
मन की ऊर्जा
तुझे बुला रही
जरूर आना मित्र।
ऐ
मेरे
अजीज
मेरे प्यारे
भूल गये क्या?
याद करो कुछ
पूर्व जन्म के प्यारे।
जी
भर
चाहत
यह बस
नित मन में
साथ मिले तेरा
मन मन्दिर आना।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
थोड़ा सा (पिरामिड)
रे
मन
थोड़ा सा
हो चिंतन
बात मान लो
सबसे उत्तम
सब परिचित हैं।
रे
सुन
दिल से
शंका छोड़ो
हाथ बढ़ाना
अपनापन ही
राह सफलतम।
ऐ
तन
काहिल
मत बन
कर चिंतन
कदम बढ़ाओ
नियमित चलना।
है
इक
सुन्दर
मधु रिश्ता
दिल से दिल
मिलन हमेश
यह मानव शोभा।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
हे राम (पिरामिड)
हे
राम
तुम्हारा
कर्म शुभ्र
दसों दिशाओं
में प्रिय चर्चित
अमर नाम तेरा ।
हे
सत्य
धरम
प्रियतम
शुभ करम
सुन्दर सरल
ज़न मनहरण ।
हे
भाग्य
विधाता
प्रेमदाता
सुखकरण
परम दयालू
प्रभु जी!कष्ट हरो।
हे
नाथ
कृपालू
ज्ञान सिन्धु
जग पालक
हे भवतारक !
हृदय में रहना।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
श्री रामेश्वर
इतना दर्द कभी मत देना।
शरणार्थी का दुख हर लेना।।
इतना नहीं रुलाना प्रभुवर।
कभी नहीं तड़पाना प्रियवर।।
तुम्हीं एक से सच्चा नाता।
तुझे देख सारे सुख पाता।।
जब तुम बात नहीं हो करते।
लगता मुझको तुच्छ समझते।।
अस्तिमान साकार खड़े हो।
अपनी जिद पर सदा अड़े हो।।
अनुनय विनय निरर्थक है क्या?
श्रद्धा भाव अनाथ आज क्या??
तुम्हीं दया हो मित्र तुम्हीं हो।
मधुर सुवासित इत्र तुम्हीं हो।।
गमको चहको उर में आकर।
तन मन खुश हो प्रभु को पा कर।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
टूट रहा है मन का मन्दिर
तोड़ न देना शीशे का दिल।
इतना नफरत क्यों ऐ काबिल??
क्या य़ह तुझे पराया लगता?
हृदय करुण रस क्यों नहिं बहता ??
तड़पा तड़पा कर अब मारो।
इसको कहीं राह में डारो।।
इसकी ओर कभी मत ताको।
मुड़कर इसे कभी मत झांको।।
रुला रुला कर सो जाने दो।
अंत काल तक खो जाने दो।।
नहीं कभी भी इसे जगाना।
इसे त्याग कर हट बढ़ जाना।।
रोता रहता मन जंगल में।
कौन सुने निर्जन जंगल में।।
हृदय कहाँ रहता जंगल में।
असहज यहाँ सभी जंगल में।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
रक्षा बंधन पर्व प्रेम का
योग क्षेम का भाई वाहक।
सहज बहन का सदा सहायक।
रक्षा करना धर्म कर्म है।
रक्षा बंधन स्तुत्य मर्म है।।
बहन लाडली प्रिय भाई की।
बाँट जोहती प्रिय भाई की।
भाई बहन सहोदर प्यारे।
रक्षा बंधन उभय दुलारे।।
बहन ससुर घर से आती है।
भातृ कलाई छू जाती है।।
प्रेम धाग बाँध खुश होती।
लगता गंगा में जव बोती।।
रक्षा बाँध मिठाई देती।
रक्षा का वह वादा लेती।
मधुर मिलन का स्नेह पुरातन।
भगिनि भातृ का प्रेम सनातन।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
पिरामिड
तू
प्रेम
गंग है
प्रिय धारा
शिव की चोटी
सदा सुशोभित
तुम मम आशा हो।
हे
आशा
जीवन
परिभाषा
साथ तुम्हारा
अतिशय प्यारा
तुम मेरा संसार।
हे
दिव्य
मधुर
प्रियवर
तुम धरती
नभ मण्डल भी
तेरा सिर्फ सहारा।
हे
प्यार !
तुम्हारा
वंदन हो
तुम अपने
हम भी तेरे हैं
आओ तो चलते हैं।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
स्वर्णमुखी छंद (सानेट)
मधुर सरस सुन्दर लगते हो।
प्रीति तुम्हारी अलबेली है।
सहज भावना नवबेली है।
मधु बनकर नियमित बहते हो।
दिव्य रसीला मन मोहक हो।
शीर्ष विंदु पर नेह तुम्हारा।
आकर्षक प्रिय गेह तुम्हारा।
रंग रूप से शुभ बोधक हो।
प्रेमनाथ तुम सहज भाव हो।
सब के प्रति है शुभ्र कल्पना।
लगता सारा जग है अपना।
सबका धोते नित्य घाव हो।
तुम मानवता की चाहत हो।
विकृत ज़न से अति आहत हो।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
तुम कौन हो?
मोहक तन मन मादक चितवन।
उत्तम कुल घर आँगन उपवन।
हे चित चोरा,तुम बहकाते।
छुप कर देखे फिर हट जाते।
मुस्काते तुम क्रोध जताते।।
मेरे मितवा, शानदार हो ।
दिल से पावन वफादार हो।
प्यार गमकता रग रग में है।
चंदन लेपन है प्रिय पग में।
तुझ सा कौन यहाँ है जग में??
नहीं भूलते नाटक करते।
प्यार लिये फाटक पर लड़ते।
सदा बुलाते नट नट जाते।
देख देख कर हट हट जाते।
बार बार आते कट जाते।।
सत्य बात है तुम अपने हो।
नहीं पराया हो सकते हो।
ईश्वर तुमको सुखी बनाएँ।
तेरे सारे कष्ट मिटाएँ।
आओ प्यारे,गले लगाएँ।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
मेरी मधुमय मधुशाला
मेरे मन के भाव तरंगों,में उठती स्नेहिल हाला;
छू लेने को दिल कहता है,जगती का संकुल प्याला;
साकी आज दिवाना हो कर,चूम रहा है धरती को:
विश्व बनाने को उत्सुक है,मेरी मधुमय मधुशाला।
उच्च हिमालय के शिखरों से,भी ऊपर मेरा प्याला;
देता है संकेत लोक को,आ कर पास चखो हाला;
दिव्य सुधा रस का प्याला ले,स्वागत करता साकी है:
अंतरिक्ष का सैर कराती,मेरी मधुमय मधुशाला।
जिसके भीतर भाव प्यार का,ले सकता है वह प्याला;
जिसके भीतर लोक राग हो,पी सकता है वह हाला;
हो संवेदनशील तत्व जो,वह साकी के काबिल है;
हर प्राणी को गले लगाती,मेरी मधुमय मधुशाला।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
पिरामिड
ऐ
मेरे
सज्जन
प्रिय मन
मनरंजन
मेरे अनुपम
साथ साथ रहना ।
ऐ
मेरे
नाविक
अति मोही
पार लगाना
रुक मत जाना
तू मेरे दिलवर।
हे
मन
भावन
अति प्रिय
मधु सावन
सहज सलोने !
संग संग रहना।
ओ
प्यारे
जीवन
य़ह मेरा
तेरे कर में
शरण में ले लो
तेरा एक सहारा।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
किस्मत
किस्मत में जो लिखा हुआ है।
वही जीव को मिला हुआ है।।
पूर्व जन्म के कर्म बनाते।
किस्मत से सब सुख दुख पाते।
प्रारब्धों से मेल कराते।।
भाग्य प्रबल मानव निर्बल है।
उत्तम भाग्य बना संबल है।।
बहुत दुखद दुर्भाग्य कटीला।
भाग्यवान अति दिव्य रसीला।
किस्मत से तन मन उर लीला।।
भाग्य कर्म का उत्प्रेरक है।
भाग्यहीन नर निश्चेतक है।
शुभ कर्मों में किस्मत बनती।
सकल सम्पदा घर में रहती।
दुख दरिद्रता नहीं फटकती।।
किस्मत का है खेल निराला।
भाग्यकर्म से मिलता प्याला।
सुख की मदिरा वह पीता है।
जो किस्मत ले कर जीता है।
जग का मोहक प्रिय प्रीता है। ।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
बंधन (शुभांगी छंद)
दिल के बंधन, का अभिनंदन,होता है अति, सुखकारी।
सदा सजाओ,हृदय लगाओ,मन बहलाओ,हियधारी।
रूप मनोहर,अति मादक घर, प्रेमिल चितवन,मधुकारी।
प्रिय मुस्कानें,सुघर तराने,प्रेम बहाने,दिलदारी।
नेह अपहरण,देह शुभ वरण,मधुर आवरण,प्रीति घनी।
मन की चाहत,प्रिय को दावत,मधुरिम राहत,हृदय धनी।
दिल को होगी,तभी तसल्ली ,जब मन की हो,बात बनी।
नज़रें मिलकर,हिल मिल जुल कर,बात करें तब,प्रेम ज़नी ।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
दुर्मिल सवैया
मन में उर में रहना बसना हँसना कहना मधु बात प्रिये।
अपनाकर भाव सदा भरना दिन रात लगे मधु मास प्रिये।
जलवा अनमोल विखेर चलो मन भावन हो अहसास प्रिये।
मनमोहन रूप खिले विथरे ग़मके दमके मधु वास प्रिये।
रग राग विराजत नित्य दिखे प्रिय वाचन से जलवायु खिले।
मन में मनमीत दिखे सुलझा शिव गान करे हृद प्रीत मिले।
जलती विपदा नित दूर रहे मधुरामृत वाक्य बयार चले।
नित उत्तम वृत्ति सुहागिन हो प्रिय प्रीति बढ़े मधु स्वप्न पले।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
बात
बात नहीं करने का मन है,तो मत बात कभी करना।
तने रहो तुम ऐसे ही प्रिय,बोली बोलत नित रहना।
याद कभी मत करना प्यारे,भूल सकल बातेँ चलना।
रहो सदा आजाद मित्रवर,बीती बात कभी मत कहना।
जहां कहीं भी रहना प्यारे, आजीवन तुम खुश रहना।
तोड़ चले हो सारे बंधन,खुद को प्रिय कायम रखना।
मान कभी मत देना साथी,अपनी धुन में तुम बहना।
लौकिकता में जीना हरदम,यार कभी मत तुम कहना।
छोड़ गये हों बीच राह में,आगे बढ़ते ही रहना।
दीनानाथ रहो तुम बनकर, मुझसे रिश्ता मत रखना।
आशीर्वाद दिया करता मन,जीवन मधुमय नित रखना।
सुखी रहो आबाद रहो प्रिय,मस्ती में जीते रहना।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
बचपन (कुंडलिया)
बचपन राजकुमार है,बादशाह का भाव।
निश्चिंतित मन डालता,अपना सुखद प्रभाव।।
अपना सुखद प्रभाव,दिखा कर मस्ती देता।
बिना ताज के राज,देत मन को हर लेता।।
कहें मिश्र कविराय,बालपन होता सच मन।
हरा भरा संसार,देखता हर पल बचपन।।
बचपन में भी दुख सुखद,है स्वतन्त्र यह राज।
इसका स्वाद अमूल्य है,इस पर सबको नाज़।।
इस पर सबको नाज़,मधुर मोहक है शैली।
अति मस्ती की चाल,परम सुन्दर जिमि रैली ।।
कहें मिश्र कविराय, स्वस्थ सुरभित काया मन।
जीवन सदा बहार,प्रफुल्लित मादक बचपन।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
आज का समाज (सरसी छंद )
मुलाकात जब पहली होती,अतिशय आदर प्यार।
बड़े स्नेह से बातेँ करते,स्वागत मधु सत्कार।
लगता जैसे प्रेम उतर कर,करता मधुमय गान।
खुले हृदय से सब कुछ कहता,देता अति सम्मान।
दो दिल मिलते प्रेम उमड़ता,अति मोहक अहसास ।
लगता जैसे स्वज़न मिले हैं,होता प्रिय आभास ।
कभी नहीं ऐसा लगता है,मन में बैठा चोर।
मिलन सहज अनुपम प्रिय मोहक,स्नेह भाव पुरजोर।
पर य़ह स्थायी कभी न होता,बालू की दीवाल।
कपट दिखायी देने लगता,उपहासों की चाल।
लोक रीति हो गयी घिनौनी,कुटिल दृष्टि की वृष्टि।
चारोतरफ परायापन है,भेद भाव की सृष्टि।
गली गली में धूर्त विचरते, करते हैं आघात।
अपमानित करने को उद्यत,दिखलाते औकात।
खत्म हुआ विश्वास आज है,अहंकार का दौर।
चालबाज कपटी मायावी,की यह जगती ठौर।
वेश बदल कर ये चलते हैं,फैले मायाजाल।
तन मन धन का शोषण करने,को आतुर वाचाल।
नंगा नृत्य किया करते हैं,नहीं आत्म सम्मान।
मित्रों के दिल पर चाकू रख,करते कटु अपमान।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
चण्डिका छंद
मात्रा भार 13
चार चरण,दो दो पद तुकांत।
किस्मत से सबकुछ मिले।
सदा भाग्य से दिल खिले।
बहुत जटिल है मित्रता।
चौतरफा है शत्रुता।
धूर्तों से बच कर रहो।
अज्ञातों को मत गहो।
सावधान रहना सदा।
नहीं चमक में पड़ कदा।
राम बचाएं धूर्त से।
कुंठित दूषित मूर्त से।
अपना कोई है नहीं।
मधुर मित्रता क्या कहीं?
मधुर मिलन होता कहाँ?
नहीं पतितपावन यहाँ।
सोच समझ कर बोलना।
जल्दी मुँह मत खोलना।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
मित्र नहीं तुम
मित्र नहीं तुम हो सकते हो।
बीज जहर का बो सकते हो।।
परम नराधम नीच निरंकुश।
नहीं किसी का इस पर अंकुश।।
तुझको जो भी मित्र समझता।
अंधकार में है वह रहता।।
नहीं मित्रता के तुम काबिल।
सूखे से लगते हो बुजदिल।।
नीरस अति उदास हो मन से।
निष्ठुर उर उजड़े हो तन से।।
मन में कालिख मुँह है धूमिल।
क्यों बनते हो मधुरिम उर्मिल??
हृदयशुन्य मानव दानव है।
कौन कहेगा वह मानव है??
मानवता का वह मारक है।
गंदा मानस दुखधारक है।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
कुछ तो कह दो (मुक्तक)
शांत रहो मत कुछ तो कह दो।
अहसासों को दिल में भर दो।
कहने को कुछ रहे न बाकी।
आमन्त्रण है कुछ तो कर दो।
गलत कहो या सही कहो तुम।
नज़र मिला कर बात करो तुम।
नहीं छुपाना खुद को भीतर।
बाहर आ कर सब कुछ धर दो।
अपने अनुभव को साझा कर।
बोझिल मन को अब आधा कर।
हल्का हो कर जीना सीखो।
कुछ भी कहने का वादा कर।
छोड़ परायापन जीना है।
आत्म लोक का मय पीना है।
नहीं किसी को तुच्छ समझना।
माला में सबको सीना है।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
अपने ऊपर गर्व न करना
अपने ऊपर गर्व मत,कभी करे इंसान।
जिस्म जल रहा हर समय,पहुंच रहा शमशान।।पहुंच रहा शमशान,जिन्दगी सदा अँधेरी।
करो नहीं अभिमान,नहीं है कुछ भी तेरी।।
कहें मिश्र कविराय,सदा हों मोहक सपने।
देह दंभ को त्याग,सभी को मानो अपने।।
अपने को सर्वस्व मत,कभी समझ बेज़ान।
हर क्षण होते क्षीण हो,तब कैसा अभिमान??
तब कैसा अभिमान,नशा में कभी न भटको।
है घमंड यह दैत्य,उठा कर इसको पटको।।
कहें मिश्र कविराय, सहज दो तन को तपने।
दो घमंड को जार,मित्र हों सारे अपने।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
एक पल की जिंदगी (सजल)
एक पल की जिंदगी अनमोल है।
जिंदगी का पल सुनहरा घोल है।।
जी रहा इंसान है हर श्वांस में।
श्वांस में पलता मनोहर बोल हैं।।
शृंखला पल से बनी है जिंदगी।
जिंदगी का पल सुधा सम तोल है।।
जो न जाने जिंदगी का पल हरा।
वह बजाता आँख मूँदे ढोल है।।
जिंदगी के प्रति नहीं गंभीर जो।
जान लो उसको बड़ा बकलोल है।।
एक पल भी बूँद अमृत तुल्य है।
जो न समझे तथ्य को वह झोल है।।
बीतता हर पल नहीं है लौटता।
जो करे शुभ कर्म वह सतमोल है।।
एक पल के बीच जीवन मौत है।
पल बना यमराज का भूगोल है।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
काव्य धारा (सजल)
काव्य की धारा बहाते चल रहा।
इक मुसाफिर दिख रहा है बतकहा ।।
हैं नहीं गम झांकता चारोंतरफ।
शब्द मोहक ढूंढता य़ह बढ़ रहा।।
कौन इसको रोक पाया है यहाँ?
मौन व्रत धारण किये य़ह चढ रहा।।
लेखनी इसकी नहीं रुकती कभी।
सोचता यह गुनगुनाता पढ़ रहा।।
काव्य गढ़ता छंद चिन्तन नव विधा।
हर विधा में काव्य कौशल पल रहा।।
दीर्घ लघु का योग मोहक जोड़ है।
भाव भरकर प्रेम का मन झल रहा।।
है बड़ा प्रिय आदमी अनमोल है।
विश्व को देता दिशा यह गढ़ रहा।।
स्वाभिमानी एकला है यह महा।
शब्द अक्षर वाक्य मोहक सज रहा।
काव्यशास्त्री यह चमकता भानु है।
दे रहा तप ज्ञान जग में चल रहा।।
है परिंदा उड़ रहा नव व्योम में।
खींच लाता वर्ण स्वर्णिम दे रहा।।
व्यास की गद्दी मिली है भाग्य में।
काव्य धारा यह बहाता जग रहा।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
शिक्षक सम्मान
शिक्षक ज्ञान पुंज भंडार,जग में है सम्मान।
उसमें शिक्षण का उपचार,रखता शिशु पर ध्यान।
शिशु को दे देता सब ज्ञान,शिक्षक मधुर स्वभाव।
ग्राहण करे शिक्षक जो स्थान,होता नहीं अभाव।।
शिक्षक महा पुरुष भगवान,देते अच्छी राह।
देते शिशु को जीवन दान,उत्तम नित्य सलाह।।
अविनाशी शिक्षक को जान,उनके जैसा कौन?
बहुत बड़ा यह प्रश्न विचार,इस पर दुनिया मौन।।
गुरु के चरणों पर गिर जाय,शिष्य सभ्य अनमोल।
वही भाग्यशाली कहलाय,बोले मीठे बोल।।
गुरु को करना सदा प्रणाम, पाओगे शुभ ज्ञान।
नतमस्तक हो शीश झुकाय,बन जाओ यशमान।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
श्री कृष्ण जन्माष्टमी
जन्म महोत्सव श्री कृष्णा का।
भाद्र महीना श्री कृष्णा का।।
आज अष्टमी श्री कॄष्ण की।
रात अँधेरी श्री कॄष्ण की।।
जय जय बोलो श्री कृष्णा की।
प्रेम से बोलो जय कृष्णा की।।
जन्म सुधा सम पावन बेला।
द्वापर में श्री कृष्ण अकेला।।
विष्णु बने हैं कृष्ण कन्हैया।
सदा दुलारे यशुदा मैया।।
बाबा नंद बहुत सुख पाते।
कान्हा कान्हा सहज बुलाते।।
बनकर दिखे दैत्य संहारक।
श्री कृष्णा जी धर्म प्रचारक।।
योगी बनकर राह दिखाते।
अष्ट योग का मर्म बताते।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
प्यार नहीं यदि
प्यार नहीं यदि तो फिर क्या है?
वायु नहीं तो तन का क्या है??
प्यारवायु ही जीवन दाता।
इसके बिना प्राण मर जाता।।
जिसको प्यार नहीं मिलता है।
घुल घुल घुट घुट कर मरता है।।
नहीं प्यार पाने के काबिल।
जहां नहीं रहता मोहक दिल।।
नहीं प्यार का विपणन होता।
इसमें त्याग समर्पण होता।।
भोग रोग यह कभी नहीं है।
दिल से दिल का मिलन यही है।।
प्यार बिना दिलदरिया सूखी।
प्यारनीर की हरदम भूखी।।
नीरवायु ही जीवन धारा।
केवल प्यार जीव आधारा।।
जिसके दिल में प्यार नहीं है।
सदा विधुर इंसान वही है।।
जो दिलसरिता प्यार बहाती।
वह गंगासागर बन जाती।।
क्या मतलब है तुच्छ प्यार का?
सत्व प्यार ही सत्य द्वारिका।।
है मनुष्य का शुभ्र प्रतीका।
सच्चा प्यार अमर मधु नीका।।
प्यार धार प्रिय को बहने दो।
निर्मलता हिय में भरने दो।।
कचड़ा साफ करो अंतस का।
उत्तम प्यार जगे मानस का।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
सहारा (दोहा गीत )
बिना सहारा के मनुज,होता है लाचार।
जिसे सहारा मिल गया,उसकी गाड़ी पार।।
एक अकेला कुछ नहीं,सबसे ठीक दुकेल।
भाड़ नहीं है फोड़ता,चना कदापि अकेल।।
सदा अकेला आदमी,लगता है असहाय।
हर संकट के काल में,है सहयोग सहाय।।
जिसे सहारा सुलभ है,वह गंगा उस पार।
बिना सहारा के मनुज,होता है लाचार।।
बिना सहारा जिंदगी,लगती अति प्रतिकूल।
अगर सहारा संग में,तो सबकुछ अनुकूल।।
कब तक कोई जी सके,जीवन को एकान्त।
मिल जाता जब आसरा,होता मन अति शांत।।
सहज सहारा प्रेम है,दुखियों का उपचार।
बिना सहारा के मनुज,होता है लाचार।।
जीवन में संभव नहीं,अगर मदद की आस।
मानव रहता हर समय,दीन दरिद्र उदास।।
जीवन का यह अर्थ है,मिले सहारा रोज।
बिना सहारा स्नेह के,फीका लगता भोज।।
जीवन के हर क्षेत्र में,बने सहारा प्यार।
बिना सहारा के मनुज,होता है लाचार।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
प्रिय तुम साथ हमेशा रहना (गीत)
प्रिय, तुम साथ हमेशा रहना।
दिल की बातें करते चलना।।
मददगार हो मेरे प्रियवर।
तुम्हीं एक हो उत्तम दिलवर।।
कदम मिलाकर आगे बढ़ना।
प्रिय, तुम साथ हमेशा रहना।।
बातेँ होंगी नयी पुरानी।
रचते रहना प्रेम कहानी।।
हाथ मिलाकर सब कुछ कहना।
प्रिय, तुम साथ हमेशा रहना।।
चलते चलते तुम खो जाना।
मस्ताना मन तुम हो जाना।।
प्यारे, खुलकर खूब मचलना।
प्रिय, तुम साथ हमेशा रहना।।
थिरक थिरक कर नृत्य करेंगे।
मदन कलाधर कृत्य करेंगे।।
खो कर मधुर सरित में बहना।
प्रिय, तुम साथ हमेशा रहना।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
प्रीति निमन्त्रण पत्र (दोहा गीत )
प्रीति निमन्त्रण पत्र का,आज हुआ अवतार।
अरुणोदय को देख कर,जीवन में गुलजार।।
अनुपम अवसर देख कर,मन में अति उत्साह।
भाव लहर में उठ रही,मधु मनमोहक चाह।।
प्रिय का पाकर पत्र य़ह,दिल में हर्षोल्लास।
रोमांचित हर अंग है,सफलीभूत प्रयास।।
आज दिख रहा प्रेम का,अद्भुत शिव आकार।
प्रीति निमन्त्रण पत्र का,आज हुआ अवतार।।
अति विशिष्ट अनुपम मधुर,मृदुल दिव्य वरदान।
प्रीति शक्ति शुभ रंगिनी,पीत वर्ण परिधान।।
आत्म रूप अद्वैत नित,निर्गुण सगुण शरीर।
प्रिय के प्रति सद्भाव का,खेले रंग अबीर।।
ईश्वर का भेजा हुआ,अद्वितीय उपहार।
प्रीति निमन्त्रण पत्र का,आज हुआ अवतार।।
यह अमृत रस भोग है,पाते विरले लोग।
जीव ब्रह्म के मिलन का,यह उत्तम संयोग।।
पूर्व जन्म के पुण्य का,यह है पावन भाग्य।
सत्कर्मों में हैं छुपे,प्रेम देव आराध्य।।
सब के प्रति आराधना,का मीठा फल प्यार।
प्रीति निमन्त्रण पत्र का,आज हुआ अवतार।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
दिल का रंग (गीत)
दिल का रंग बहुत गहरा है।
खुला गगन सोया पहरा है।।
बिना रुकावट यह है चलता।
चारोंतरफ मचलता रहता।।
ब्रह्मपूत सुंदर अमरा है।
दिल का रंग बहुत गहरा है।।
पुष्पक यान इसी को कहते।
सारे लोग इसी में रहते।।
सिर्फ देखता यह बहरा है।
दिल का रंग बहुत गहरा है।।
यह अनंत आकाश असीमा।
ओर छोर का पता न सीमा।।
इसमें हरदम प्यार भरा है।
दिल का रंग बहुत गहरा है।।
य़ह रखवाला प्रिय मतवाला।
पीता और पिलाता प्याला।।
मधु भावों का यह नखरा है।
दिल का रंग बहुत गहरा है।।
प्रिय सज्जन ही इसकी चाहत।
देते ये हैं दिल को राहत।।
आये मत वह जो कचरा है।
दिल का रंग बहुत गहरा है।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
तन माटी का (दोहा गीत )
तन माटी का लोथड़ा,है अनित्य अवतार।
प्रति क्षण प्रति पल मर रहा,यह इसका व्यापार।।
इस पर करता गर्व जो,वह मूरख मतिमन्द।
सदा ज्ञान के चक्षु हैं,सहज निरंतर बंद।।
साधन इसको मान कर,हो इसका उपयोग।
नहीं साध्य यह है कभी,सिर्फ भोग का योग।।
सदा देह को स्वस्थ रख,उत्तम रहे विचार।
तन माटी का लोथड़ा,है अनित्य अवतार।।
तन मिट्टी का है बना,फिर भी यह फलदार।
इससे होकर गुजरता,पुरुषार्थों का द्वार।।
इस यथार्थ को जान कर,रखो देह पर ध्यान।
तन के नित उपचार का,रहे हमेशा भान।।
मस्ती में डूबे रहो,छोड़ सकल व्याभिचार।
तन माटी का लोथड़ा,है अनित्य अवतार।।
पंच तत्व से है बना,यह अति लौकिक देह।
फिर भी इसमें आत्म का,अति मनमोहक गेह।।
तन से पावन धर्म है,इससे ही सत्कर्म।।
मिट्टी का लोदा बना,करता सारे कर्म।।
तन बिन हो सकता नहीं,कोई भी व्यवहार।
तन माटी का लोथड़ा,है अनित्य अवतार।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
बचपन आया लौटकर (दोहा गीत)
आया है बचपन नया,मन में खुशी अपार।
नव पीढ़ी को साथ ले,उर में स्नेहिल ज्वार।।
बचपन आता लौटकर,नव चेतन की बाढ़।
मोहक जीवन है यही,रिश्ता सुखद अगाढ़।।
स्वर्गिक सुख आनंद की,यह स्नेहिल है छांव।
खुशियां आतीं पास में,नहिं जमीन पर पांव।।
मनोदशा अनुपम सुखद,अमृत भाव विचार।
आया है बचपन नया,मन में खुशी अपार।।
अभिनव बचपन भाग्य में,जिसके वह धनवान।
स्वर्णिम जीवन काल यह,मन भरता मुस्कान।।
बाल संग खेले सदा,दादा देते साथ।
बाल रूप दादा बने,पकड पौत्र का हाथ।।
बचकानापन भाव में,चंचलता की धार।
आया है बचपन नया,मन में खुशी अपार।।
दादा बच्चा बन गये,अतिशय मन खुशहाल।
ठुमक ठुमक कर नाचते, मस्तानी है चाल।।
चिंताएँ काफूर सब, दिखता सहज उमंग।
मन में ऊर्जा स्नेह से,चमक रहा है रंग।।
अभिनव जीवन आगमन,करता है मनहार।
आया है बचपन नया, मन में खुशी अपार।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
जिंदगी
कभी न छूटे
कभी न रूठे
कभी न बदले
पीत रंग है
मोहक कोमल
प्रीति जिंदगी।
वही रहेगी
सहज बहेगी
बाँह गहेगी
बात करेगी
मुस्कायेगी
प्रीति जिंदगी।
हाथ बढ़ाकर
नज़र मिलाकर
प्रेम दिखाकर
वह आयेगी
छा जायेगी
प्रीति जिंदगी।
अति अद्भुत है
स्नेह बहुत है
रसमयता है
मादकता है
सदा बंदगी
प्रीति जिंदगी।
सहज मोहिनी
सत्य बोधिनी
हृदय गामिनी
मदन स्वामिनी
धेनु नंदिनी
प्रीति जिंदगी।
डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
सनातन मूल्य
रामा छंद (वर्णिक )
जगण यगण दो लघु
121, 122 ,11
कुल 8 वर्ण
चार चरण,प्रत्येक चरण में 8 वर्ण
सदा सत का गायन।
सुधा सम वातायन।
सुनो सबका कारण।
बहे शुभ उच्चारण।
मने सब का सावन।
दिखे मृदुता पावन।
सुखी मन हो भावन।
अमी सर का आवन।
रहें मन में शंकर।
प्रफुल्लित हो गोचर।
सुहागिन हो मानस।
बने दिल हो पारस।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
दिल की पुकार (गीत)
दिल से दिल को मिलने देना।
सब के दिल को खिलने देना।।
यह संसार निराला होगा।
दिलदारों का प्याला होगा।।
हाला सबमें भरने देना।
दिल से दिल को मिलने देना।।
इंतजार कर साथ निभाना।
सबको लेकर चलते जाना।।
शिवभाषी मन बनने देना।
दिल से दिल को मिलने देना।।
मत करना प्रतिकार किसी का।
हल करना हर हाल सभी का।
प्रिय योगी उर रचने देना।
दिल से दिल को मिलने देना।।
राग द्वेष पाखण्ड छोड़ना।
विकृत मानस भाव तोड़ना।।
मधुर कामना करने देना।
दिल से दिल को मिलने देना।।
यही एक है उत्तम चाहत।
कोई भी हो मत मर्माहत।।
स्नेह सरित मे बहने देना।
दिल से दिल को मिलने देना।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
रहे नहीं कदापि गम (गीत)
मिला शरीर इसलिए।
करे सुकर्म हिय लिए।।
परार्थ भाव हो न कम।
रहे नहीं कदापि गम।।
तजो सदैव वासना।
पवित्र ओज कामना।।
भरो मनुज असीम दम।
रहे नहीं कदापि गम।।
धरो धनुष रचो प्रथा।
हरो दुखी मनोव्यथा।।
दवा बने चलो सुगम।
रहे नहीं कदापि गम।।
तजो सदैव वासना।
पवित्र ओज कामना।।
भरो मनुज असीम दम।
रहे नहीं कदापि गम।।
गहो धनुष रचो प्रथा।
हरो दुखी मनोव्यथा।।
दवा बने चलो सुगम।
रहे नहीं कदापि गम।।
प्रवेश द्वार धर्म हो।
दिखे अंगन सुकर्म हो।।
नहीं धरा रहे अधम।
रहे नहीं कदापि गम।।
सहज रहे मनुष्यता।
नहीं रहे दरिद्रता।।
जमीन पर सदा सुधम।
रहे नहीं कदापि गम।।
रहे अमर्त्य भव्यता।
असत्य की विनष्टता।।
रहे न अंधकार तम।
रहे नहीं कदापि गम।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
हिन्दी मेरी प्रेमिका (दोहा गीत )
हिन्दी मेरी प्रेमिका,यह मेरी सरकार ।
पुण्य धाम यह तीर्थ है,रमता मन साकार।।
जननी की भाषा यही,मिला इसी से ज्ञान।
यही आत्म अभिव्यक्ति का,खुला मंच मनमान।।
इसमें रच बस कर हुआ,इस जगती में नाम।
ईर्ष्या से जो दहकते,उनका काम तमाम।।
हिन्दी का पूजन सतत,वन्दन प्रिय सत्कार।
हिन्दी मेरी प्रेमिका,य़ह मेरी सरकार।।
हिन्दी को स्वीकार कर,किया इसी से प्रीति।
यही बनी प्रिय जिंदगी,यही स्नेह की रीति।।
चली लेखनी अनवरत,कविताओं की बाढ़।
भाव मधुर बनते गये,मैत्री हुई प्रगाढ़।।
प्रेमिल हिन्दी प्रेरिका,करती नित्य दुलार।
हिन्दी मेरी प्रेमिका, यह मेरी सरकार।।
जिसको हिन्दी आ रही,वही विश्व का मीत।
लिखता पढ़ता हर समय,नैतिकता के गीत।।
वैश्विक समतावाद का,य़ह प्रसिद्ध है मंत्र।
समझदार के ज्ञान में,हिन्दी उत्तम तंत्र।।
हिन्दी में रच काव्य को,देना बौद्धिक धार।
हिन्दी मेरी प्रेमिका,य़ह मेरी सरकार।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
: तलाश (दोहा गीत )
जीवन के आरंभ से,चलती सतत तलाश।
आत्मतोष का मिलन ही,जीवन का आकाश।।
सदा खोजता चल रहा,मानव दिव्य मुकाम।
किन्तु भाग्य में जो लिखा,उसका वह है धाम।।
मेहनत करता मनुज है,हिय में फल की चाह।
निश्चित नहीं भविष्य की,शीतलता की छांह।।
मनुज ढूंढता बढ़ रहा,खोजत सत्य प्रकाश।
जीवन के आरंभ से, चलती सतत तलाश।।
कुछ पाता कुछ खो रहा,कंकड़ पत्थर स्वर्ण।
कभी दीखता पार्थ सा,कभी दीखता कर्ण।
जीवन के संग्राम में,जीत हार का खेल।
सिंहासन पर है कभी,कभी पेरता तेल।।
न्यायालय में बैठ कर,कभी खेलता ताश।
जीवन के आरंभ से, चलती सतत तलाश।।
हस्ताक्षर कर लिख रहा,सुख दुख का इतिहास।
कभी बना अहसास है,कभी बना उपहास।।
खोज रहा है दम्भ को,अर्थ प्रधान अपार।
चाह रहा है जीतना,वह सारा संसार।।
जीवन का मधु मंत्र है,आत्मतोष अविनाश।
जीवन के आरंभ से, चलती सतत तलाश।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
[12/09, 18:15] Dr.Rambali Mishra: अमृत ध्वनि छंद
अमृत कलश सरोज की,आजीवन हो खोज।
अमर रहे य़ह जिंदगी,मिले तोष का भोज।।
मिले तोष का भोज,हृदय हो, मंगलकारी।
सतकृत्यों की, दिखे बाढ़ नित,अति हितकारी।।
मृदु आयोजन,पावन तन मन,मधु उत्तम कृत।
रखता जो है,भाव सुन्दरम,वह है अमृत।।
अमृत दैवी भाव का,करते रहो विकास।
नाभि कुंड भरता रहे,नियमित करो प्रयास।।
नियमित करो प्रयास,भाव में, शीतलता हो।
अति शुचिता हो,भावुकता हो,निर्मलता हो।।
बोल चाल में,चाल ढाल में,दिख मधुर अमित।
बनते जाना,देते रहना,प्रिय शिव अमृत।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
जिसको प्रिय श्री राम हैं
मात्रा भार 13/11/13
जिसको प्रिय श्री राम हैं,वहीं भक्त हनुमान,जिसको प्रिय श्री राम हैं।
राम चरित मानस पढ़े,निर्मल बने महान,जिसको प्रिय प्रभु राम हैं।।
राम विश्व आदर्श हैं,हो उनका नित पाठ,राम विश्व आदर्श हैं।
रामायण में राम जी,हो उनसे हर बात,राम श्रेष्ठ आकर्ष हैं।।
कहते प्रभु श्री राम हैं,करना नहीं अनर्थ,कहते प्रभु श्री राम हैं।
मन में रखना त्याग नित,जग की माया जान,कहते ईश्वर राम हैं।।
धर्म स्थापना के लिए,करो अनवरत काम,धर्म स्थापना के लिए।
विचलित होना मत कभी,बढ़ो न्याय की ओर,असुरों के वध के लिए।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
शिक्षा (अमृत ध्वनि छंद )
शिक्षा अमृत तुल्य है,इसका विनय स्वभाव।
बिन शिक्षा के मनुज का,कुछ भी नहीं प्रभाव।।
कुछ भी नहीं प्रभाव,परम जड़,मानव होता ।
सोच समझ में,शून्य हृदय बन,काँटा बोता।।
सदा अतार्किक,करता बातें,वह बिन दीक्षा।
वही विवेकी,करता नेकी,लेकर शिक्षा।।
शिक्षा से ही मनुज का,होता है उत्थान।
शिक्षा देती ज्ञान प्रिय,अर्थ मान सम्मान।।
अर्थ मान सम्मान,मनुज सब,अर्जित करता।
तार्किक सब कुछ,मौलिक मोहक,बातें कहता।।
अच्छी राहें,सदा दिखाती,सफ़ल परीक्षा।
जग में करती,नाम अमर है,उत्तम शिक्षा।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
क्या तुम मेरे मीत बनोगे?
क्या तुम मेरे मीत बनोगे?
इक प्यारा सा गीत लिखोगे??
मैं तेरा सत्कार करूंगा।
कभी नहीं इंकार करूंगा।।
बोलो, क्या तुम साथ रहोगे?
क्या तुम मेरे मीत बनोगे??
तुम्हीं परम प्रिय मोहक नायक।
सुन्दर मन प्रिय अनुपम लायक।।
क्या ज्वर को तुम शीत करोगे?
क्या तुम मेरे मीत बनोगे??
मेरे प्यारे,तुम्हीं चयन हो।
मुझ अनाथ के तुम्हीं नयन हो।।
क्या तुम मुझसे प्रीत करोगे?
क्या तुम मेरे मीत बनोगे??
मेरे दिल के प्रिय अभिनय हो।
दिव्य शुभ्र साकार विनय हो।।
क्या जीवन का नीत रचोगे?
क्या तुम मेरे मीत बनोगे??
उर उदास है बिना मित्र के।
सरस नहीं मन बिना इत्र के।।
क्या तुम उर्मिल जीत बनोगे?
क्या तुम मेरे मीत बनोगे??
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
मैं हिन्दी हूँ
हिन्दी में ही,लिखता पढ़ता,गाना गाता,मीत बनाता,प्रेम सिखाता,रच बस जाता,मैं हिन्दी हूँ।
सोहर गाता,विरहा गाता,आल्हा रचता,निर्मित करता,छंद अनेका,एक एक सा,मैं हिन्दी हूँ।
हिन्दी बोली,मधु अनुमोली,जीवन आशा,प्रिय परिभाषा,मानवता प्रिय,मधुमयता हिय,मैं हिन्दी हूँ।
राम चरित हूँ,मधुर कवित हूँ,चौपाई हूँ,कुंडलिया हूँ,सुन्दर दोहा,उत्तम रोला,मैं हिन्दी हूँ।
जो करता है, स्नेह प्रेम है,हो जाता है,मेरा प्यारा,बहुत दुलारा,नयन सितारा,मैं हिन्दी हूँ।
प्रेम पत्र हूँ,हृदय सत्र हूँ,गायत्री हूँ,सावित्री हूँ,मुझको जानो,नित पहचानो,मैं हिन्दी हूँ।
प्रकृति पुरुष हूँ,इंद्र धनुष हूँ,सुन्दर सावन,सहज लुभावन,मैं श्रद्धा हूँ,गुरु बुद्धा हूँ,मैं हिन्दी हूँ।
मैं अक्षर हूँ,परमेश्वर हूं,ब्रह्म लोक हूँ,मधुर श्लोक हूँ,निष्कामी हूँ,बहुगामी हूँ,मैं हिन्दी हूँ
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
दिल शीशे का
अतिशय भावुक,बहुत मुलायम,दिल शीशे का।
कटु मत बोलो,सदा बचाओ,दिल शीशे का।
कांप रहा है,हांफ रहा है,दिल शीशे का।
नहीं तोड़ना,सदा जोड़ना,दिल शीशे का।
ऐसा मत कह,लग जाये जो, दिल शीशे का।
सावधान हो,रक्षा करना,दिल शीशे का।
प्रेम चाहता,साथ निभाता,दिल शीशे का।
वह निष्ठुर है,जो चटकाता,दिल शीशे का।
अति संवेदन,करे निवेदन,दिल शीशे का।
य़ह उदार है,सदाचार है,दिल शीशे का।
यह मन्दिर है,अति सुन्दर है,दिल शीशे का।
इसे लुभाना,मन बहलाना,दिल शीशे का।
नहीं टूटने,पर यह जुड़ता,दिल शीशे का।
मत कर घायल,मत बन पागल,दिल शीशे का।
पाप करो मत,नहीं दुखाओ,दिल शीशे का।
दया दान कर,सदा गान कर,दिल शीशे का।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
हिन्दी है
मात्रा भार 11/11
करे शब्द विस्फोट,धमाका हिन्दी है।
करे दुष्ट पर वार,तमाचा हिन्दी है।।
तरह तरह के दृश्य,तमाशा हिन्दी है।
उड़ती चारोंओर,पताका हिन्दी है।।
भरी हुई है भीड़,खचाखच हिन्दी है।
करती सबसे प्रीति,चमाचम हिन्दी है।।
सभी रसों से पूर,रसभरी हिन्दी है।
यह समतल चौकोर, सुन्दरी हिन्दी है।।
कविता कवित निबंध,बहु विधी हिन्दी है।
यह है भाव प्रधान,अति सधी हिन्दी है।।
दे रचना को जन्म,दनादन हिन्दी है।
सिंहासन सर्वोच्च,शिवासन हिन्दी है।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
हिन्दी का महत्व
मात्रा भार 11/11
प्रिय हिन्दी साहित्य,गगन की आभा है।
संस्कृति का आयाम,स्वयं य़ह शोभा है।।
हिन्दी में अति लोच,मधुर सुखदायी है।
लेखक का सम्मान,करे वरदायी है।।
नारी वाचक भाव,बहुत य़ह कोमल है।
यह गंगा अवतार,परम शुचि निर्मल है।।
यह उदार मनुहार,सभी की सुनती है।
देती सबको दान,सहज मन हरती है।।
हिन्दी से कर प्रेम,मनुज शीतल होता।
रच कर काव्य अनेक,स्वयं में वह खोता।।
स्वतः सिद्ध साहित्य,मिलन को यह उत्सुक।
देती सबको ज्ञान,अगर कोई इच्छुक।।
सभी रसों का मेल,बहुत य़ह गुणकारी।
हिन्दी में लिख गीत,बनो कवि आचारी।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
हिन्दी मंडपम (अमृत ध्वनि छंद )
हिन्दी का मंडप महा,जैसे क्षितिज अनंत।
ग्रंथागार विशाल अति,इसमें लेखक संत।।
इसमें लेखक संत,कबीरा,तुलसी प्याला।
यहाँ जायसी,प्रेम चंद प्रिय,सुकवि निराला।।
लेखन गंगा,मधु हिम अंगा,माथे विंदी।
अति हितकारी,सदा सुखारी,जय जय हिन्दी।।
हिन्दी हिन्दुस्तान है,विश्व विजय पर ध्यान।
हिन्दी में रचना करो,बन जाओ विद्वान।।
बन जाओ विद्वान,रहो नित,सुन्दर मन का।
कविता लिख गा,बन कल्याणी,दिख मोहन सा।।
हिन्दी दिलवर,इसको पा कर,दुनिया जिन्दी ।
भारी भरकम,सदा चमाचम, गन्धी हिन्दी।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
हक़ीक़त (मुक्तक)
हकीकत जगत का यहीं एक पाया।
नहीं है यहाँ कुछ दिखी मोह माया।
तृष्णा का बंधन सभी को सताता।
हिरण मन मचलता बहकती है काया।
लुटेरा बना मन धरा राह जल्दी।
नहीं है पता राह प्रिय किन्तु गंदी।
भगा मन विलखता बहुत आज रोता।
पड़ा जेल में सड़ रहा आज वंदी।
बना मन दिवाना कमाई के पीछे।
न देखा कभी वह न ऊपर न नीचे।
बना पागलों सा अनैतिक दिखा वह।
जहां से मिला धान धन सिर्फ नोचे।।
बना ज्ञान सागर सदा ऐंठे ऐंठे।
चलाता हुकुम है सदा बैठे बैठे।
न डर है किसी का अभय बन चहकता।
बना कृमि टहलता लगे कर्ण पैठे।
गलत काम में वह मजा पा रहा है।
लुढ़कता झुलसता सज़ा पा रहा है।
नहीं पर संभलता गिरे नालियों में।
सुनामी लहर में फंसा जा रहा है।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
हृदय की उड़ान ( मधु मालती छंद)
मापनी 22 12 ,22 12,22 12, 22 12
आओ प्रिये,नाचो सखे,गाओ हरे,मन को हरो।
साजो सुमन,प्यारे वतन,फ़ूले चमन,सुख को भरो।
प्यारा हृदय,चाहत यही, निर्मल बने ,कोमल तना।
ज्यादा मिले,सारा अमन,खुशियाँ मिलें,मधुरिम घना ।
सादा रहे,मन भावना,सब के लिए,शुभ कामना।
आराधना,जग की करो,मन में रहे,शिव याचना।
बोलो सदा,मधु वाचना,आचार में,शुभ दृष्टि हो।
खेलो सदा,सत्कर्म से,व्यापार में,धन वृष्टि हो।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
मुस्कान (मुक्तक)
मापनी:221,221,22
दिल में दिया जल रही है।
खुशबू पिघल बह रही है।
मौसम बहुत है सुहाना।
मुस्कान मन छू रही है।
मुस्कान की बात मत कर।
यह है सुधा का अमर सर।
जिसको मिली भाग्य उसका।
अनुपम यही ज्योति का घर।
वीरांगना बढ रही है।
योद्धा बनी लड़ रही है।
मस्तक झुकाता जगत है।
सब के सिरे चढ़ रहीं है।
मुस्कान बिन जिंदगी क्या?
इसके बिना वंदगी क्या?
मुस्कान ही मन सरोवर।
इसके बिना व्यक्ति का क्या?
इसके बिना मन उदासा।
लगता जगत यह पियासा।
उपहार यह ईश का है।
हरते प्रभू यह पिपासा।
मुस्कान भर कर चला जो।
दिल से चहकते मिला जो।
सबको लिया हाथ में वह।
मन से गमकते खिला जो।
मुस्कान में प्रेम धारा।
तीरथ परम पूज्य प्यारा।
इसके बिना शून्य सब कुछ।
आकाश का य़ह सितारा।
मोहक सहज यह निराली।
स्वादिष्ट मधु रस पियाली।
मिलती नहीं यह सभी को।
पाता इसे भाग्यशाली ।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
राम का आदर्श
राम गये बनवासी बन कर,किये राक्षसों का संहार।
संतों की रक्षा करने को,आतुर राम चन्द्र अवतार।
धर्म स्थापना मूल मंत्र था,इसीलिए था वह बनवास।
सारा जीवन त्यागपूर्ण था,संघर्षों का था इतिहास।
अति मनमोहक कमल हृदय था,पर ऊपर से बहुत कठोर।
चौदह वर्ष किये पद यात्रा,थामे सदा धर्म की डोर।
शांति स्थापना चरम लक्ष्य था,विचलित कभी नहीं श्री राम।
रच इतिहास किये जग पावन,जगह जगह कहलाया धाम।
दुखी जनों के प्रति उदार थे,जग पालक श्री सीताराम।
अति कोमल कृपालु रघुरायी,दुष्ट दलन करते श्री राम।
महा शक्ति बलवान महारत,पाये जग में अमृत नाम।
टूट पड़े असुरों पर धनु ले,करते उनका काम तमाम।
जिसको जिसको मारे प्रभु जी,उनको दिये मोक्ष का धाम।
साधु संत का सेवक बन कर,आते प्रभुवर दे विश्राम।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
शीर्षक: कितना करें बखान?
(दोहा गीत)
तुझे देख मन खुश हुआ,कितना करें बखान?
तुझ काबिल मनमीत का,बहुत अधिक अहसान।।
इस सारे संसार में,तुझसे बढ़ कर कौन?
पूछ रहा हरिहरपुरी,पर दुनिया है मौन।।
गगन चूमता है तुझे, छूता तेरे पांव।
हरे भरे सब वृक्ष भी,देते तुझको छांव।।
दिव्य अनंत विभूति हो,सकल शास्त्र का ज्ञान।
तुझे देख मन खुश हुआ,कितना करें बखान??
चितवन में मुस्कान है,कमल नयन में मोह।
दुष्टों के संग्राम में,तुम्ही तीक्ष्ण अति कोह।।
तुझे जानने के लिए,मन हो अंतर्ध्यान।
तुझको पाने के लिए,रहे प्रीति का ज्ञान।।
रक्षा करते दीन का,देते अक्षय दान।
तुझे देख मन खुश हुआ,कितना करें बखान??
जन्म जन्म के पुण्य का,मिलता दिव्य प्रसाद।
वाधाएँ सब दूर हों,मिटे सकल अवसाद।।
मोहक छाया मन रमा,अति मधुरिम विस्तार।
प्रेमातुर स्नेहिल सरस,अति मधुमय संचार।।
मोहित तुझ पर मनुज य़ह,चाह रहा उत्थान।
तुझे देख मन खुश हुआ,कितना करें बखान??
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
शिव छंद
21 21 21 2
मात्रा भार 11
जो करे न धर्म को।
सोचता अधर्म को।
मान ले कुकर्म को।
जानता न मर्म को।
वासना जली करे।
लोक की पहल करे।
सभ्यता उदार हो।
विश्व में प्रचार हो।
हो कभी न दीनता।
ध्यान में न हीनता।
साफ स्वच्छ हों सभी।
हो अनर्थ मत कभी।।
रात दिन सहायता।
प्रेम नीर मान्यता।
कामना सरोज हो।
आज प्रीति भोज हो।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।
अभिमान (अमृत ध्वनि छंद )
हिकभर भरता दंभ जो,वह दूषित इंसान।
सदा मारता डींग है,औरों का अपमान।।
औरों का अपमान,मान खुद,अपनी चाहत।
ऊँचा बनता,गाली दे कर,पाता राहत।।
श्रेष्ठ समझता,बहुत घमंडी,बोले डटकर।
सदा बड़ाई,अपनी करता,पागल हिकभर ।।
हिकभर गाता मुर्ख है,अपना सिर्फ बखान।
अभिमानी इंसान का,कभी न जग में मान।।
कभी न जग में मान,सिर्फ वह, हाँका करता ।
बातेँ हरदम,केवल अपनी,ऊंची रखता ।।
जल भुन जाता,जग की उन्नति,देख समझ कर।
पतित अभागा,बने सुहागा,दंभी हिकभर।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।