कविता
Dr.Rambali Mishra: दगा (दोहे)
दगा जो जो देता वह पतित, कुटिल नीच शैतान।
क्षमा नहीं करते उसे, शिव महेश भगवान।।
शिव का हत्यारा वही, जिसमें कपट कुचाल।
गला घोट विश्वास का, बनता जग का लाल।।
छल करता जो मित्र से, दगाबाज इंसान।
अपना मुंह काला किये, देता सबको ज्ञान।।
मूर्ख अधम पापी सदा, नहीं किसी का मीत।
बना अनैतिक घूमता, गाता गंदा गीत।।
दागदार नापाक अति, बदबूदार विचार।
गंध मारता दनुज वह, करता पपाचार।।
मायावी कुत्सित हृदय, कुंठित असहज भाव।
अति विघटित व्यक्तित्व ही, देता सबको घाव।।
दूषित जीवन जी रहा, करता है आघात।
मन में शोषण वृत्ति है, सदा लगाए घात।।
रचनाकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
Dr.Rambali Mishra: पैगाम (अमृत ध्वनि छंद)
अतिशय प्रिय पैगाम है, मनमोहक संदेश।
कवि आया है द्वार पर, धर योगी का वेश।।
जोगी बन कर, पीत रंग का, वस्त्र पहन कर।
थिरक थिरक कर, निज कवित्त का, प्याला भर कर।।
गायन करता प्रेम से, गढ़ गढ़ कहता बात।
लिये सरंगी हस्त में, नाच रहा दिन रात।।
नाचत गावत, प्रीति पिलावत, मोहित करता।
प्रणय सूत्र का, वर्णन कर कर, हृदय विचरता।।
देख रूप मधु भाव को, आकर्षित सब लोग।
कवि योगी के गान से, होते सभी निरोग।।
बालक बाला, सब मतवाला, मोहक मंजर।
एक सयानी, पर चल जाता, मोहन मंतर।।
बहुत कटीली रूपसी, पर चलता प्रिय बाण।
चाह रहा कविस्पर्श को, उसका जीवन प्राण।।
प्रीति निभाने ,ह्रदय सजाने, को कवि उत्सुक।
देख चपलता, अति मादकता, कविवर भावुक।।
रचनाकार:, डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[27/12/2022, 16:16] Dr.Rambali Mishra: नमामि शंभु शंकरम
नमामि शंभु शंकरम भजामि वामदेव को।
प्रणम्य भक्तवत्सलम जपामि ब्रह्मदेव को।
कृपालु विश्वनाथ ज्ञान सिंधु ईश्वरेश्वरा।
दयालु एक मात्र नील लोहितम महेश्वरा।
त्वमेव शूलपाणिनी शिवाप्रिया दिगंबरम।
जटा विशाल गंगधर त्रिनेत्र शिव चिदंबरम।
महा विनम्र बोधिसत्व कालदेव देव हो। विनीत यज्ञ बुद्धिप्रद विवेक एकमेव हो।
त्रिपुरवधिक कुशाग्र उग्र शर्व सर्व प्रेमदा।
सहानुभूति योग पर्व दिव्य धन्य स्नेहदा।
जगत गुरू अजेय विज्ञ सोम शांत संपदा।
कपट रहित विदेह देह नीर भव्य नर्मदा।
वृषांक वीरभद्र सौम्य भर्ग सूक्ष्म साधना।
गिरीश नेक आतमा अनेक सिद्ध आसना।
समूल रूप तत्व रूप हित जगत सुकामना।
अनंत राशि रश्मि शिव हरी हरीश ध्यानना।
रचनाकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[28/12/2022, 17:43] Dr.Rambali Mishra: नादान (दोहे)
गलती करता है सदा, जड़ मूरख नादान।
ज्ञानशून्य अनुभवरहित, नहीं क्रिया का भान।।
आगे पीछे सोचता, कभी नहीं नादान।
परिणति से मतलब नहीं, नहीं अर्थ का ज्ञान।।
गलती पर गलती करे, समझ शून्य नादान।
पता नहीं उसको चले, अपनों की पहचान।।
दोस्त अगर नादान है, तो सब गड़बड़झाल।
सहज बिगाड़े स्वाद वह, अधिक नमक को डाल।।
अधकचरे नादान का, मत पूछो कुछ हाल।
बिन सोचे बोले सदा, लाये संकट काल।।
अज्ञानी मतिमंद ही, कहलाता नादान।
बना हंसी का पात्र वह, जग में रखता स्थान।।
संज्ञाशून्य बना सदा, दिखता है नादान।
खुद को जाने वह नहीं, नहीं किसी का ज्ञान।।
दूर रहो बच कर चलो, देख नहीं नादान।
नादानों की बात पर, कभी न देना ध्यान।।
रचनाकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[29/12/2022, 16:36] Dr.Rambali Mishra: नारी का जीवन
तुला समान नारियां असभ्यता नकारतीं।
त्रिशूल कर लिए सदा स्वतंत्रता पुकारती।
समान भाव भंगिमा सुतंत्रिका सुमंत्रिका।
बनी हुई सुनायिका सुपंथ लोक ग्रंथिका।
निरापदा सदा सदा सशक्त वीर अंगना।
सुशोभिता सुकोमाला सहानुभूति कंगना।
दया क्षमा करुण रसिक प्रशांत चित्त भित्तिका।
असीम नीरयुक्तता अपार धर्म वृत्तिका।
कभी नहीं वियोगिनी सुरागिनी सुशांतिका।
अपूर्व युद्धगामिनी अजेय शौर्य क्रांतिका।
पराक्रमी विशाल भाल लोचनीय देहिका।
विराट शिवशिवा सरिस शिला उदार स्नेहिका।
कठोर वर्ण रंग रूप न्यायमूर्ति भामिनी।
अमोल बोल मोहनी वृहद सुवीर्य दामिनी।
सदैव क्लेशहारिणी सतत हरित वसुंधरा।
अनादि सृष्टि साधिका जनन मनन पयोधारा।
रचनाकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[30/12/2022, 16:11] Dr.Rambali Mishra: फर्ज (दोहे)
प्यार किया अच्छा हुआ, किंतु निभाना फर्ज।
नहीं प्यार से है बड़ा, जीवन में कुछ कर्ज।।
नैतिकता के ग्रंथ में, है पहला अध्याय।
मानव का यह फर्ज है, करे हमेशा न्याय।।
जिसे फर्ज का ज्ञान है, मानव वही महान।
सबके प्रति संवेदना, का हो असली भान।।
फर्ज बहुत अनमोल है, इसका रखना ख्याल।
फर्ज निभाता हर समय, चलता हीरक लाल।।
मत घमंड हो फर्ज पर, यह नैतिक कर्त्तव्य।
जिसे बोध है न्याय का, वह नित मोहक भव्य।।
फर्ज निभाता जो चला, वही सफल इंसान।
जिसे कर्म का ज्ञान है, जग में वही महान।।
फर्ज समझ में आ गया, तो पढ़ना साकार।
अनुचित उचित विचार ही, जीवन का आधार।।
चला पथिक जिस पंथ पर, सदा निभाता फर्ज।
सर्व विश्व अभिलेख में, नाम उसी का दर्ज।।
जीवन के सच अर्थ को, सहज जानता फर्ज।
फर्ज निभाने में कहां, कोई कुछ भी हर्ज।।
हाला पीता फर्ज की, मस्ताना बलवान।
मस्ती में वह झूमता, स्थापित हो पहचान।।
रचनाकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[31/12/2022, 10:12] Dr.Rambali Mishra: नजारा
बहुत मस्त तेरा नजारा अलौकिक।
असर जादुई दिव्य मोहक अभौतिक।
बरसती जवानी मचलता वदन है।
गमकती सुनयना चहकती सुगन है
सदा छेड़ती तान मादक रसीली।
बड़ी मोहनी है सुघर नित छबीली।
बहुत कोमलांगी नवेली कली है।
सुहानी लुभानी बहकती चली है।
सदा प्रेम खातिर तड़पता हृदय है।
फड़कती अदाएं मनोरथ उदय है।
गरमजोश विह्वल बनी दामिनी है ।
सदा नित्य नूतन गगन गामिनी है ।
भुजाएं ध्वजा सी चमकती त्वचा है।
मदन मस्त मौला मधुर रस रचा है।
कराओ सदा पान अमृत कलश ले।
नशीले अधर लोक रख दो अधर पे।
रचनाकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[31/12/2022, 17:52] Dr.Rambali Mishra: गुरु शिष्य प्रेम
जिसको गुरु में लगन है, वह पाता वरदान।
गुरु के स्नेहिल हृदय से, सहज बरसता ज्ञान।।
शिष्य गुरू संवाद ही, सहज ज्ञान का मूल।
यह विद्या की आतमा, करो भाव अनुकूल।।
शिष्य वही जग में सुखी, जो गुरु के अनुकूल।
गुरु चरणों को पूजता, कभी नहीं प्रतिकूल।।
शिष्य गुरू के प्रेम को, जो करता स्वीकार।
वही सकल इस विश्व में, लाता है उजियार।।
गुरु को अंगीकार कर, जो करता है प्यार।
चलती उसकी लेखनी, चिंतन अपरंपार।।
गुरु का प्यारा शिष्य ही, जग में करता नाम।
सहज बना जिज्ञासु वह, करता बौद्धिक काम।।
गुरु वाणी अति मोहिनी, हितकर रुचिकर भव्य।
सच्चा प्रेमी शिष्य ही, सदा सीखता नव्य।।
गुरु को दिल में जो रखे, वह बनता विद्वान।
जल्दी जल्दी सीख सब, पाता मोहक ज्ञान।।
शिष्या आती पास में, लेकर कलम किताब।
कभी नहीं वह पूछती, गुरु से प्रीति हिसाब।।
सदा शिष्य के कर्ण में, गुरुवार फूंके मंत्र।
हर विद्या के मर्म को, बतलाता बन यंत्र।।
रचनाकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[02/01, 11:18] Dr.Rambali Mishra: देवी स्तुति (पंचचामर छंद)
सदा अकेल श्रृष्टि कर्म लोक धर्म पालिका।
बहुल बनी विवेविका अनेक एक साधिका।
नितांत शांत मौन धाम प्रेम रूप राधिका।
असुरअरी सुसाधु चित्त कंस वंश वाधिका।
समय महान एक तुम सुकाल हो अकाल हो।
कुकृत्य सर्व हारिणी परोपकार चाल हो।
महंत संत सेविका महा मही सुपाल हो।
अनंत देव देवियां समेत यज्ञ माल हो।
निकाय नित्य नायिका नमामि नम्र नर्मदा।
सहानुभूति सभ्य शैव शीत शुद्ध सर्वदा।
अलक्ष्य लक्ष्य लेखिका ललाट लुभ्य लालिता।
कवित्त वित्त पोषिका सुपालिनी स्वपोषिता।
वचन सुखद प्रचारिका महातमा विचारिका।
सरल विनय विनीत विज्ञ विद्य सिंधु धारिका।
प्रचंड ज्ञानदायिनी सरस्वती सुपूजिका।
अधर मधुर करो सदैव मातृ देहि जीविका।
रचनाकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[02/01, 15:27] Dr.Rambali Mishra: खूब खूब नित्य खूब।
प्रेम दिव्य गंग डूब।
रास नृत्य बार बार।
स्नान प्रीति हो न ऊब।
डूब जा अनंत में।
दिखो सदा बसंत में।
खिला करें सदेह अंग।
प्रेम भोग अंत में।
डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी।
[03/01, 16:37] Dr.Rambali Mishra: कल्पना लोक
कल्पना मनोहरी बसी रहे हृदय सदा।
भागने न दो कभी बनी रहे प्रयंवदा।।
सर्व धर्म एक बस रहे यही मनोरथी।
काम्य भावना बनी सदैव होय सारथी।।
मुस्कराय दिल लगाय बन सुगंध मांलिका।
प्रेम रस पिलाय नित्य ले करस्थ प्यालिका।।
प्रीति रस डुबोय बोर बार बार कल्पना।
अंध कूप दिव्यमान जोश रूप भावना।।
हुस्न में सुघर मधुर सुशील ज्योति कल्पना।
चारुदत्त प्राणिनी सजीव शुभ्र ज्योत्स्ना।।
मान लें जिसे सही वही सुसत्य कल्पना।
मानती मनोरमा सुकोमली सुगंधना।।
कल्पनीय सत्य शिव निरापदा निरामया।
वासना रहित सदा उपासना सहज दया।।
चुंबकीय वंदनीय अर्चनीय चंदना।
कारुणिक कृपालु काव्य कर्ण प्रिय विमोचना।।
कल्पना स्वरूप रीति प्रीति रंग रोगना।
स्वर्ण वर्ण चिंतना सुहाग संग शोभना।।
अंतहीन प्रेम अंग कामना सुवासना।
साम्य भाव जागरण प्रभा विभा शुभासना।।
रचनाकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[04/01, 16:40] Dr.Rambali Mishra: मोहब्बत
मोहब्बत भरी ये जवानी रहेगी।
तेरे साथ मिल जिंदगानी खिलेगी।
नहीं लत किसी की सुनो दुनियावालों।
तुझसे लिपट कर कहानी बनेगी।
तुम्हारे भरोसे चलेगा ये जीवन।
तुम्हीं इक खेवैया लगे पार जीवन।
विछुड कर न जाना कभी हमसफर तू।
सदा साथ देना रहे खुश सदा मन।
मोहब्बत का तमगा लगाए मचलना।
लिए अंक में भर टहलना फुदकना।
कसम खा कहो तुम हमारे रहोगे।
श्रृंगार मोहक किए नित विचरना।
आंसू को बहने कभी मत तू देना।
लगा कर हृदय से संभलने तू देना।
मोहब्बत का इकरारनामा लिखो प्रिय।
हंसना हंसाना सहज प्यार देना।
रचनाकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[06/01, 15:20] Dr.Rambali Mishra: सुशांत देश (पंचचामर छंद)
रचा करो सुशांत प्रांत भ्रांत तर्क छोड़ दो।
सुतर्क बुद्धि साधना विवेक स्वर्ग जोड़ दो।
मरोड़ ग्लानि तोड़ द्वेष दर्प भेद त्याग दो।
अनेक में अनन्त हेतु शून्य अंक भाग दो।
प्रशांत हिंद देश का करो सदैव कामना।
टपक बहे अमी सुधा यही सुबोध याचना।
भरत मिलाप हो सदा जगत बने सहोदरम।
सुनीति प्रीति रीति से बने सुगीति सुंदरम।
कुटिल दनुज अधर्म पाप मोह वासना जरे।
सदा उपासना करे मनुज सुधारणा धरे।
पवित्र मन विचारवान स्नेह विश्व में भरे।
तथा रहे न देहवाद शोषणीयता मरे।
साहित्यकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[15/01, 12:18] Dr.Rambali Mishra: छोटा कौन बड़ा मानव है?
छोटा मानव है वही, जिसका तुच्छ विचार।
खुद को कहता है बड़ा, करता निंदाचार।।
बड़ा वही धनवान है, जिसमें शिष्टाचार।
अपने को छोटा कहे, करे सभ्य व्यवहार।।
छोटे की पहचान यह, करता मिथ्याचार।
अभिमानी कलुषित हृदय, दुर्जन मन व्यभिचार।।
बड़ा हुआ इंसान वह, जिसमें सच्चा स्नेह।
आत्म भाव भरपूर वह, रहता बना विदेह।।
मानवता से प्रेम ही, बड़ मानुष का भाव।
सहज समर्पण वृत्ति प्रिय, प्रेमिल संत स्वभाव।।
वह मानव इस जगत में, निंदनीय अति छोट।
पहुंचता इंसान को, अनायास है चोट।।
बड़ा अगर बनना तुझे, छोटा बनना सीख।
दर्परहित रहना सदा, परहितवादी दीख।।
अनायास जो दे रहा, सच्चे को उपदेश।
लुच्चा छोटा वह दनुज, कपटयुक्त है वेश।।
बड़ा कभी कहता नही, खुद को बड़ इंसान।
पूजन करता लोक का, जिमि समग्र भगवान।।
अहित किया करता सदा, नित छोटा इंसान।
बड़े मनुज के हृदय में, स्वाभिमान का ज्ञान।।
जिसके दिल में पाप है, उसको छोटा जान।
बड़ा कभी करता नहीं, अपने पर अभिमान।।
साहित्यकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[16/01, 16:31] Dr.Rambali Mishra: जिंदगी इक पहेली है ।
मापनी 212 212 22
जिंदगी इक पहेली है, जान पाना बहुत मुश्किल।
जान लेता इसे बौद्धिक, आत्म ज्ञानी सहज मौलिक।
जान पाये इसे गौतम, बुद्ध रामा सदा कृष्णा।
सब सहे रात दिन झेले, मारते हर समय तृष्णा।
कौन पढ़ता चरित वृंदा, कौन आदर्श को जाने।
सब यहां दीखते जाते, हर समय नित्य मयखाने।
मायका ही सुघर लागे, घर ससुर काटता दौड़े।
धन बहुत की यहां चाहत, पाप की नाव नद पौड़े।
जिंदगी की समझ टेढ़ी, सत्य की खोज है जारी।
आस्तिकी भावना गायब, नास्तिकी सिंधु की बारी।
मोह माया अधोगामी, है भयानक घटा काली।
शान झूठे दिखाता है, आज का मन गिरा नाली।
प्यार के नाम पर धोखा, कायराना लहर चलती।
जेल में सड़ रहा कातिल, जिंदगी हाथ है मलती।
साहित्यकार; डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[21/01, 17:18] Dr.Rambali Mishra: मनसिंधु
नमन करो समुद्र मन मनन करो सचेत हो।
गमन करो विचार कर सदा प्रयोग नेत हो।
तरह तरह सजीव जंतु भांति भांति लोक है।
विचर रहे अनेक रूप राज नग्न शोक है।
विभिन्नता विशिष्टता सहिष्णुता सुशिष्टता।
कठोरता परायता अभद्रता अशिष्टता।
सगुण अगुण निगुण विगुण निरूप रूप रश्मियां।
असीम राशियां यहां अचेत चेत अस्थियां।
सुयोग योग रोग भोग रत्न माल मालिनी।
विराट सृष्टि प्राकृतिक मनोज सिंधु शालिनी।
विवेक बुद्धि ज्ञान से करो सदैव मंत्रणा।
चुनो सदा बुनो वही बने सहाय रक्षणा।
पहन सहर्ष मालिका सुरत्निका सुपालिका।
वरण करो सुपात्रता सुशोभनीय न्यायिका।
साहित्यकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[22/01, 17:42] Dr.Rambali Mishra: लकीरें
लकीरें मिटाना लकीरें बनाना,
बनी जो लकीरें उन्हें लांघ जाना,
बहुत श्रम सघन मांगती हैं लकीरें,
लकीरें दिखातीं नवल नव निशाना।
सभी की लकीरें अलग सी अलग हैं,
किसी की लकीरें अकल की नकल हैं,
चला जो अकेला बनाता कहानी,
उसी की लकीरें अचल सी अटल हैं।
उकेरा स्वयं को बढ़ाया कदम को,
दिखाया जगत को स्वयं आप दम को,
उसी की लकीरें दिखाती सुहाना,
सफर को; बतातीं सिखाती सुश्रम को।
बड़ी वे लकीरें जिन्हें छू न पाया,
जमाना उन्हें देख कर सोच पाया,
बहुत है कठिन पंथ ठोकर बड़े हैं,
लकीरें बनाया वही नाम पाया।
साहित्यकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[23/01, 16:34] Dr.Rambali Mishra: अमरत्व की खोज
नहीं चुप चाप बैठे रह, नहीं आलस्य करना है।
भगीरथ बन चला करना, धरा पर गंग रचना है।
मिली है जिंदगी प्यारी, सदा शुभ कर्म करना है।
रहे बस प्रेम की गंगा, इसी में नित्य बहना है।
नहीं हो वासना मन में, कभी मत अर्थ का लालच।
बहो निर्द्वंद्व भावों में, सदा तुम द्वंद्व से जा बच।
फकीरी में अमीरी है, यही मस्ती निराली है।
भगा जो लोक के पीछे, उसी की रात काली है।
साहित्यकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[23/01, 18:27] Dr.Rambali Mishra: कुंडलिया
प्यारे!प्यारे शब्द चुन, बुन चादर मनहार।
जड़ो सितारा चमकता, पहन चलो बाजार।।
पहन चलो बाजार, देख तुझको सब रीझें।
चौराहा गुलजार, मस्त सब दर्शक भीजें।।
कह मिश्रा कविराय, जीत तेरी जग हारे।
वशीभूत संसार, सुने जो मीठे प्यारे।।
प्यारे मन की बात को, सुनने को बेचैन।
सकल गोपियां जोहतीं, बाट सहज दिन रैन।।
बाट सहज दिन रैन, सतत आतुर बालाएं।
सुनने को बेताब, लोक की सब अबलाएं।।
कहें मिश्र कविराय, मधुर ही सबको तारें।
इसी कला को सीख, घोल रस सबमें प्यारे।।
साहित्यकार:डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[24/01, 15:49] Dr.Rambali Mishra: नदियां (दुर्मिल सवैया)
नदियां बहती चलती रहतीं बढ़ती कहतीं रमणीक बनो।
सबका उपकार किया करना रहना जग में प्रिय नीक बनो।
सब सींच धरा खुशहाल करो हरियाल करो सगरी जगती।
रुकना न कहीं चलते रहना अति पावन वृत्ति जगे हंसती।
सब वृक्ष उगें अति हर्षीत हों सबमें मधु पल्लव पुष्पन हो।
सब आवत धाम नदी तट पे सबमें मधु बौर सुगुम्फन हो।
फलदार बनें सब दें जग को फल मीठ अलौकिक है सुखदा।
बन छांव सदा हारते दुःख क्लेश सहायक ग्रीषम में वरदा।
सरयू नदिया मनभावन है वह राम चरण नित धोवत है।
नित गंग नदी शिव शंकर जी कर स्नान शिवा घर सोहत हैं।
यमुना अति निर्मल नीर लिये प्रभु कृष्णन पांव पखारत है।
नदिया प्रिय पावन शरद रूप सदा शिव ब्रह्म बुलावत है।
नदियां सब कोमल ज्ञान भरें अति शुभ्र सनेह लगावत हैं।
हर जीव सुखी नदियां जल पी सब हर्षक गीत सुनावत हैं।
पुरुषार्थ चयुष्ठय दान दिया करती नदियां हर जीवन को।
सबसे मिलती सबको मिलती करतीं वरुणा करुणा मन को।
साहित्यकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[10/02, 16:15] Dr.Rambali Mishra: प्यार भरा संगीत बनो
बना जो प्यार भरा संगीत, लिखा करता वह सुंदर गीत,
किया करता अमृत रसपान,
दिखाई देता करते प्रीत।
[10/02, 16:28] Dr.Rambali Mishra: बनो सारे जग का रखवाल,
नयन में इस जगती को डाल,
कमर कस कर तू चलना सीख,
हृदय में स्नेहिल ऊर्जा पाल।
[10/02, 16:43] Dr.Rambali Mishra: वदन में भरा हुआ हो जोश,
प्यार में रहना नित मदहोश,
गिला शिकवा से रहना दूर,
रहे मन में अनुपम संतोष।
[10/02, 17:10] Dr.Rambali Mishra: नेह का अमरस सबमें घोल,
समन्वयवादी बचना बोल,
छोड़ चल अब सारे तकरार,
बजे मधुमानव की प्रिय ढोल।
साहित्यकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[11/02, 10:03] Dr.Rambali Mishra: प्यार भरा संगीत बनो
बना जो प्यार भरा संगीत, लिखा करता वह सुंदर गीत,
किया करता अमृत रसपान,
दिखाई देता करते प्रीत।
बनो सारे जग का रखवाल,
नयन में इस जगती को डाल,
कमर कस कर तू चलना सीख,
हृदय में स्नेहिल ऊर्जा पाल।
वदन में भरा हुआ हो जोश,
प्यार में रहना नित मदहोश,
गिला शिकवा से रहना दूर,
रहे मन में अनुपम संतोष।
नेह का अमरस सबमें घोल,
समन्वयवादी बचना बोल,
छोड़ चल अब सारे तकरार,
बजे मधुमानव का प्रिय ढोल।
साहित्यकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[11/02, 12:40] Dr.Rambali Mishra: प्यार भरा संगीत जरूरी
बना जो प्यार भरा संगीत, लिखा करता वह सुंदर गीत,
किया करता अमृत रसपान,
दिखाई देता करते प्रीत।
बनो सारे जग का रखवाल,
नयन में इस जगती को डाल,
कमर कस कर तू चलना सीख,
हृदय में स्नेहिल ऊर्जा पाल।
वदन में भरा हुआ हो जोश,
प्यार में रहना नित मदहोश,
गिला शिकवा से रहना दूर,
रहे मन में अनुपम संतोष।
नेह का अमरस सबमें घोल,
समन्वयवादी बचना बोल,
छोड़ चल अब सारे तकरार,
बजे मधुमानव का प्रिय ढोल।
साहित्यकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[13/02, 11:04] Dr.Rambali Mishra: कामयाबी
मापनी 2122 2122 2122 212
कामयाबी के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए।
हर मनुज को लक्ष्यवेधी पार्थ बनना चाहिए।
जो नहीं करता परिश्रम वह सदा हतभाग्य है।
ज्ञान अर्जन के लिए शास्त्रार्थ करना चाहिए।
अर्थ अर्जन के लिए व्यापार करना चाहिए।
उच्च प्रस्थिति के लिए उपकार करना चाहिए।
कौन उसको पूजता नहिं पूछता जो अधम है।
शुद्ध मन का अनवरत विस्तार करना चाहिए।
शिष्ट मानव ही सफल उत्तम सुभद इस लोक में।
डूबता है नर अधम पापी निशाचर शोक में।
जो नहीं आलस्य करता कर्म ही शिव साधना।
कामयाबी नित उकेरे उस मनुज को श्लोक में।
कामयाबी के लिए हैवानियत को मार दो।
जिंदगी को शुभ्र शुभ कल्याणप्रद आकार दो।
मत करो अन्याय धोखेबाज बनना मत कभी।
न्याय पथ स्वीकार कर अन्याय को इंकार दो।
साहित्यकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[13/02, 17:39] Dr.Rambali Mishra: सफलता
सुख सफलता के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए।
दिव्य मन को लक्ष्यभेदी पार्थ बनना चाहिए।
जो नहीं करता परिश्रम वह सदा हतभाग्य है।
ज्ञान अर्जन के लिए शास्त्रार्थ करना चाहिए।
अर्थ अर्जन के लिए व्यापार करना चाहिए।
उच्च मानस के लिए उपकार करना चाहिए।
कौन उसको पूजता नहिं पूछता जो आलसी।
शुद्ध मन का अनवरत विस्तार करना चाहिए।
शिष्ट मानव ही सफल उत्तम सुभद इस लोक में।
डूबता है नर अधम पापी निशाचर शोक में।
जो नहीं आलस्य करता कर्म ही शिव साधना।
कामयाबी नित उकेरे उस मनुज को श्लोक में।
कामयाबी के लिए हैवानियत को मार दो।
जिंदगी को शुभ्र शुभ कल्याणप्रद आकार दो।
मत करो अन्याय धोखेबाज बनना मत कभी।
न्याय पथ स्वीकार कर अन्याय को इंकार दो।
साहित्यकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[14/02, 19:12] Dr.Rambali Mishra: प्रेम दिवस
प्रेम दिवस जब हर पल होगा, खुशियां दिल में झूमेंगी।
थिरक थिरक कर नाचे खुश मन, स्मृतियां रग रग चूमेंगी।
जीवन का आयाम निराला, मधु रस उर में उतरेगा।
पी पी मस्ती हंस हंस बोले, हृदय द्वार प्रिय उघरेगा।
रोम रोम से छलके आंसू , प्रीति मिलन की बारी है।
स्नेहिल चित्त वृति अकुलाई, अभी नवेली क्वारी है।
हंस विराजे मन के आंगन, वीणा की झंकार सुनो।
प्रेम दिवानी ग्रंथि बोलती, मुझ्को लेकर ग्रंथ बुनो।
भावुक तन मन को समझाओ, प्रेम दिवस अब आया है।
जन्म जन्म का भूखा प्यासा, कातर जन अकुलाया है।
सज्जन का यह दिव्य पर्व है, इसको मत बदनाम करो।
प्रेम दिवस के इस उत्सव का , खुले मंच पर नाम करो।
रसिक मनोहर मनमोहक का, यह अति प्यारा नारा है।
मिलन रहेगा बना रहेगा, प्रेम दिवस शुभ प्यारा है।
प्रीति जगेगी नृत्य करेगी, झूम झूम कर हाथ मिले।
रोमांचित हो प्रेम साधना, खुशमिजाज हो स्नेह खिले।
साहित्यकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[15/02, 12:06] Dr.Rambali Mishra: रिश्ता
प्यार की अभिव्यक्ति का अहसास हो।
तुम हमारे पास हो।
इक पथिक अंजान आकर है खड़ा।
स्नेह सिंचित मूर्तिवत आकर पड़ा।
दे रहा संदेश कोमल भाव का।
दिख रहा मोहक मधुर प्रिय चाव का।
प्रिय बना वह लड़ रहा संघर्ष से।
मौन फिर भी मन भरा है हर्ष से।
चाहता है न्यायसंगत बात हो।
न्याय जिसको प्रिय नहीं वह रात हो।
प्रेम की वीणा लिये वह चल रहा।
एक सुंदर गीत मधुरिम पल रहा।
डोर रिश्ते की पकड़ आया यहां।
अंजान में मधु जान की छाया यहां।
तुम फरिश्ता प्रेम का आवास हो।
तुम हमारे पास हो।
साहित्यकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[16/02, 10:11] Dr.Rambali Mishra: कन्या लक्ष्मी रूप है ।
कन्या के सम्मान से, यश वैभव की वृद्धि।
बढ़ता घर परिवार है, होती धन की सिद्धि।।
कन्या धन सर्वोच्च का, हो अनुदिन सम्मान।
रक्षा करना हर समय, हो उस पर ही ध्यान।।
मन में हो कटिवड्ढता, हो दहेज काफूर।
वैदिक पद्धति से सहज, हो विवाह भरपूर।।
वर के अभिभावक करें, उत्तम शिष्टाचार।
हो दहेज के नाम पर, कभी न अत्याचार।।
संवेदन को मार कर, मानव करता लोभ।
गला घोटता हृदय का, किंतु न होता क्षोभ।।
ले दहेज की राशि को, कौन बना धनवान?
करो भरोसा कर्म पर, बनो विनीत महान।।
कन्या के सम्मान से, होता घर खुशहाल।
जो दहेज के लालची, वे दरिद्र वाचाल।।
मानवता का पाठ पढ़, कभी न मांगो भीख।
मत दहेज याचक बनो, ठग विद्या मत सीख।।
जो दहेज को मांगता, वह दरिद्र इंसान।
इस अधमाधम वृत्ति से, कौन हुआ धनवान??
ईश्वर के आशीष से, मनुज होय धनवान।
जो दहेज से दूर है, वह मोहक इंसान।।
जो दहेज के नाम पर, करता है व्यापार। अत्याचारी नीच का, मत करना सत्कार।।
मत दहेज लेकर कभी, बन पूंजी का बाप।
करो अनवरत रात दिन,आत्मतोष का जाप।।
कन्या खुद में मूल्य है, प्रिय लक्ष्मी की मूर्ति।
कन्या को ही पूज कर, हो इच्छा की पूर्ति।।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[16/02, 17:30] Dr.Rambali Mishra: मदिरा सवैया
मंद सुगंध बयार करे नित चुंबन छूवत है तन को।
पंख पसार सुखी खुश है मन पावत शांति सुधा धन को।
पीर हरे सुखदायक है भर अंक सुजान बना पवना।
साजन सा मनहार करे प्रिय वायु चला करने गवना।
शीतल स्पर्श लगे मनमोहक चूमत घूमत है रग में।
प्यार भरी अंखियां इसकी प्रिय वायु समान नहीं जग में।
वैद्य बना यह जीवन का सब में पसरे हलका मनवा।
रोग भगे मधु चुम्बन सेवन नींद भरे सहजा तनवा।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[17/02, 12:39] Dr.Rambali Mishra: भोर की लाली
मापनी 2122 2122 212
भोर की लाली सुहानी स्वागती,
लालिमा मोहक मनोहर नाचती ,
प्रातकाले उठ मचलती गायिका,
नायिका बनकर थिरकती राजती।
पावनी लालित्य मधुरिम में सजी,
दिव्य सुरभित लाल माला से गजी,
मोहनी सूरत मदन रथ पर खड़ी,
शुभ सबेरा बोलती घंटी बजी।
कालिमा यह रात्रि की है काटती,
जागती सबको जगाती आरती,
निर्मला श्रृंगार रस की प्रेमिका,
लालिमा लाली कला शुभ भारती।
नेत्र में शिव सुंदरम संकेत है,
उज्ज्वला मधु भावना की नेत है,
विश्वमन को साजने की कामना,
भोर की लाली मृदुल शुचि चेत है।
भोर की लाली प्रभा हनुमान है,
लाल लोहित रंग की मुस्कान है,
सूर्य के शुभ आगमन की सूचिका,
आप में शुरुवात उत्तम ज्ञान है।
ब्रह्म की आभा बनी यह आ रही,
जागरण के गीत हरदम गा रही,
कह रही संसार से सोना नहीं,
आत्म के उद्धार पथ पर जा रही।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[17/02, 17:15] Dr.Rambali Mishra: मोह
मापनी 21 21 21 21 21 21 21 2
मोह को निशा न जान दिल बहार देश है।
स्नेहपूर्ण प्यार का सदेह सत्य वेश है।
प्रेम आप से हुआ नहीं पता ठिकान था।
कौन जानता कहां अमीर का विहान था?
मर रहा जवान अंग आसमान में।
साहचर्य भावना मरी श्मशान में।
किंतु देख देख कर प्रफुल्ल मन हुआ कभी।
मोहनीय मंत्र चल पड़ा मधुर इधर तभी।
लग रहा न मन समझ बिना दिदार के।
मोह लग रहा बहुत बिना विचार के।
आप से मिलन जरुर हो यही सुकामना।
दूर मत निकट रहो बढ़ो समीप आंगना।
स्पर्श सुख अनादि से अनंत तक मिला करे।
याद आ रही प्रिये!उठो चलो हृदय भरे।
खेल कूद हो सदा थिरक थिरक मचल मचल।
ठोंक तालियां सहर्ष आसनी अदल बदल।
प्रेम का सहस्र वाण रात दिन चला करे।
मोहिनी सुगंधिता अपार कष्ट नित हरे।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[18/02, 17:01] Dr.Rambali Mishra: भगवान शिव स्तुति
मापनी 221 221 221 22
आओ शिवा शंभु नाचो मगन हो।
डमरू बजाओ तुम्हीं नित गगन हो।
लाओ धरा पर सुनहरी सुकाशी।
छाओ हृदय में भवानी अमन हो।
जाना नहीं तुम नहीं भूल जाना।
वादा करो तुम बनो आशियाना।
कांटों भरी जिंदगी को उबारो।
भोले विभव प्रेम अमृत पिलाना।
श्रीकंठ कवची महाकाल योगी।
गंगा जटा में सुशोभित निरोगी।
दर्शन सुलभ हो यही याचना है।
माना न समझा तुझे दुष्ट ढोंगी।
दानाय दानी महा संत स्वामी।
रामाय रमते रमेश्वर नमामी।
शाश्वत अजन्मा स्वयंभू जटाधर।
अव्यय कलाधर उजागर अनामी।
[18/02, 17:13] Dr.Rambali Mishra: [18/02, 17:01] Dr.Rambali Mishra: भगवान शिव स्तुति
मापनी 221 221 221 22
आओ शिवा शंभु नाचो मगन हो।
डमरू बजाओ तुम्हीं नित गगन हो।
लाओ धरा पर सुनहरी सुकाशी।
छाओ हृदय में भवानी अमन हो।
जाना नहीं तुम नहीं भूल जाना।
वादा करो तुम बनो आशियाना।
कांटों भरी जिंदगी को उबारो।
भोले विभव प्रेम अमृत पिलाना।
श्रीकंठ कवची महाकाल योगी।
गंगा जटा में सुशोभित निरोगी।
दर्शन सुलभ हो यही याचना है।
माना न समझा तुझे दुष्ट ढोंगी।
दानाय दानी महा संत स्वामी।
रामाय रमते रमेश्वर नमामी।
शाश्वत अजन्मा स्वयंभू जटाधर।
अव्यय कलाधर उजागर अनामी।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[18/02, 17:14] Dr.Rambali Mishra: भगवान शिव स्तुति
मापनी 221 221 221 22
आओ शिवा शंभु नाचो मगन हो।
डमरू बजाओ तुम्हीं नित गगन हो।
लाओ धरा पर सुनहरी सुकाशी।
छाओ हृदय में भवानी अमन हो।
जाना नहीं तुम नहीं भूल जाना।
वादा करो तुम बनो आशियाना।
कांटों भरी जिंदगी को उबारो।
भोले विभव प्रेम अमृत पिलाना।
श्रीकंठ कवची महाकाल योगी।
गंगा जटा में सुशोभित निरोगी।
दर्शन सुलभ हो यही याचना है।
माना न समझा तुझे दुष्ट ढोंगी।
दानाय दानी महा संत स्वामी।
रामाय रमते रमेश्वर नमामी।
शाश्वत अजन्मा स्वयंभू जटाधर।
अव्यय कलाधर उजागर अनामी।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[19/02, 16:46] Dr.Rambali Mishra: कयामत
मापनी 122 122 122 122
कयामत बुरी चीज होती नहीं है।
जिधर देखता मन कयामत वहीं है।
कयामत इधर है कयामत उधर है।
सलामत रखो उर नसीहत यही है।
कयामत बनाती सभी को बहादुर।
सिपाही बना जो वही वीर चातुर।
न डरना कभी भी सुनो जिंदगी में।
बनो धीरधारी लड़ो हस्तिनापुर।
जहां दृष्टि निर्मल नहीं है कयामत।
नशीली बहुत है हृदय की हिमाकत।
कभी पीठ पीछे नहीं तुम घुमाना।
पुरुष हो न कायर करो खुद हिफाजत।
डरा जो गया वह नहीं जीत पाया।
तिरंगा लिये राष्ट्र के गीत गाया।
समझ जो गया खासियत क्या बला है?
वही बन प्रतापी स्वयं को तपाया।
कयामत निकाया जलाते तपस्वी।
रहा कर इकहरा सजाते यशस्वी।
जिसे मोह माया नहीं है सताती।
वही युद्ध धारा विजेता मनस्वी।
कयामत पटकना जिसे खूब आता।
सहज ही लड़ाई लड़े पार पाता।
लहर से जिसे भय हमेशा लगा है।
उसे सिंधु का पथ सताता डराता।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[20/02, 19:21] Dr.Rambali Mishra: शीर्षक: सफलता
जो कोशिश करता, चलता जाता, बढ़ता जाता हिम गिरी पर।
चिंता नहिं करता, आगे क्या है, बढ़ता चढ़ता थिरक थिरक कर।
है अगले बगले, गहरी खाई, सावधान सचमुच दिखता।
वह गिर जाने पर, फिर उठता है, इतिहास अमर प्रिय लिखता।
उद्देश्य अटल हो, तीक्ष्ण दृष्टि हो, नेक इरादा मन में हो।
भूतल से उठने, की इच्छा हो, ऊर्जा मनबल उर में हो।
गिरने से मानव, जो नहिं डरता, वही सफल हो जाता है।
है जिसके भीतर, मंजिल स्वर्णिम, वही लक्ष्य को पाता है।
साहित्यकार डॉ. रामबली मिश्र वाराणसी
[21/02, 13:43] Dr.Rambali Mishra: तुलसी
सहज ही रहती प्रभु के हृदय,
जगत नित्य रहा कर वंदना,
तुम चढ़ा करती नित शीश पर,
विजयदायक दिव्य प्रसाद हो।
परम निर्मल पावन शक्ति हो,
हरि प्रिया अति दिव्य दुआ दवा,
सकल लोक प्रसिद्ध महौषधी ,
सतत स्वस्थकरी शुभ आत्मिका।
जगह होय विशुद्ध जहां तुलसी,
नहिं विपत्ति कभी रहती वहां,
सकल देव दिखे खुशहाल अति,
तुलसिका प्रियदर्शिनि मोहिनी।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[21/02, 19:08] Dr.Rambali Mishra: तुलसी की वंदना
जय जय जय जय तुलसी माता।
रोग नाशिनी शक्ति विधाता।।
विष्णु प्रिया प्रिय मोहक नारी।
दुनिया से भी ऊपर भारी।।
हरि के भी ऊपर रहती हैं।
सर्वेश्वरि उत्तम लगती हैं।।
तुलसी चरण जहां भी पड़ता।
पावन धाम वहीं पर बनता।।
तुलसी का हर अंग दवा है।
इनके आगे रोग हवा है।।
जो तुलसी का पौध लगाता।
वह लक्ष्मी वैभव सुख पाता।।
जो इनको सम्मानित करता।
वह दिनकर की भांति चमकता।।
तुलसी जिसके दरवाजे पर।
उसका द्वार गमकता मनहर।।
तुलसी को मत पौधा जानो।
इनको ब्रह्मरूपिणी मानो।।
महा शक्ति की ये द्योतक हैं।
पतिव्रता शुचि की पोषक हैं।।
जो तुलसी का पूजन करता।
साधु संत बन जग में रहता।।
तुलसी जी को गले लगाओ।
अपना जीवन सहज सजाओ।।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[22/02, 18:36] Dr.Rambali Mishra: कामातुर निर्लज्ज निरंकुश
कामातुरता मनोरोग है।
अतिशय विकृत देह भोग है।।
इसके मन में जिस्म विचरता।
तन का प्रेमी बना फिसलता।।
निर्भय बनकर घूमा करता।
चकपक चकपक देखा करता।।
सदा शिकारी बना टहलता।
मृगनयनी को देख विचलता।।
लज्जाहीन निरंकुश घटिया।
कहता फिरता खुद को बढ़िया।।
इज्जतरहित सदा अपमानित।
विषयवासना से दुर्वासित।।
सदा घिनौनी हरकत करता।
सूकर बन बस्ती में चलता।।
ताकझांक में लगा हुआ मन।
भूखा प्यासा है सारा तन।।
गंदा से मन भरा हुआ है।
कचड़ा से तन ढका हुआ है।।
इज्जत की परवाह नहीं है।
संयम की कुछ चाह नहीं है।।
भोग विलास सदा मनभावन।
दूषित नाला ही अति पावन।।
मछली के चक्कर में प्रति पल।
रहता मन में हरदम हलचल।।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[23/02, 11:11] Dr.Rambali Mishra: लेखनी काव्य प्रतियोगिता
23 फरवरी,2023
शीर्षक:सांझ (दोहे)
दिनकर होते अस्त जब, तब आती है सांझ।
दिन का अंतिम क्षण यही, समझ न इसको बांझ।।
मिलन कराती है यही, खुश होती है रात।
सहज रात्रि में डूब कर, दिन प्रति पल मुस्कात।
सांझ अगर होती नहीं, रात कहां अहिवात?
सखी बनी है रात की, सांझ सतत दिन रात।।
पूरब दिशि में हो खड़ी, दिन को लेत समेट।
भर कर अपने अंक में, दिन को देती मेट।।
फिर यह सखिया रात को, दिन को देती सौंप।
दंपति सुख में डूबते, रात दिवस बेखौफ।।
सांझ संधि का क्षेत्र प्रिय, अनुपम दिव्य महान।
रात दिवस की भेंट का, यह है मधुर विधान।।
बुरा न समझो सांझ को, यह अत्युत्तम काल।
प्रणयन होता सूर्य का, दिखती चंदा लाल।।
बनी सहेली सांझ है, गाती मंगल गीत।
इस अद्भुत बारात में, प्रेम प्रेमिका मीत।।
जब आती है सांझ तो, खुश होती है रात।
दिवस समाये रात में, लगते फेरे सात।।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[23/02, 12:00] Dr.Rambali Mishra: शीर्षक:सांझ (दोहे)
दिनकर होते अस्त जब, तब आती है सांझ।
दिन का अंतिम क्षण यही, समझ न इसको बांझ।।
मिलन कराती है यही, खुश होती है रात।
सहज रात्रि में डूब कर, दिन प्रति पल मुस्कात।
सांझ अगर होती नहीं, रात कहां अहिवात?
सखी बनी है रात की, सांझ सतत दिन रात।।
पूरब दिशि में हो खड़ी, दिन को लेत समेट।
भर कर अपने अंक में, दिन को देती मेट।।
फिर यह सखिया रात को, दिन को देती सौंप।
दंपति सुख में डूबते, रात दिवस बेखौफ।।
सांझ संधि का क्षेत्र प्रिय, अनुपम दिव्य महान।
रात दिवस की भेंट का, यह है मधुर विधान।।
बुरा न समझो सांझ को, यह अत्युत्तम काल।
प्रणयन होता सूर्य का, दिखती चंदा लाल।।
बनी सहेली सांझ है, गाती मंगल गीत।
इस अद्भुत बारात में, प्रेम प्रेमिका मीत।।
जब आती है सांझ तो, खुश होती है रात।
दिवस समाये रात में, लगते फेरे सात।।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[23/02, 15:48] Dr.Rambali Mishra: महारथी
राज पाट त्याग कर चला गया महारथी।
सोच कुछ किया नहीं बहा बना भगीरथी।
चाह में उमंग की बयार दिव्य उच्चता।
जागरण बहिर्मुखी दिशा स्वतंत्र अस्मिता।
मोह मन निकल गया सहर्ष त्याग मांगता।
बिंदु सिंधु के लिए चला सदैव जागता।
बस्तियों अनेक को पिछाड़ता चला गया।
ब्रह्म भावना भरे हृदय मनुज चढ़ा गया।
स्वार्थ छोड़ कर चला नहीं विवाद में फंसा।
शांति की तलाश थी अनीति में नहीं धंसा।
गंदगी पसंद थी कभी नहीं महर्षि को।
विश्व आत्म धारणा पुकारती महर्षि को।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी।
[24/02, 16:41] Dr.Rambali Mishra: प्रीति रंग
विधाता छंद
बहे जब प्रेम की गंगा समझ घनश्याम आये हैं।
रखे वंशी अधर प्रिय पर मधुर मधु गीत गाये हैं।
वहीं राधा रमण करतीं विचरती कृष्ण को लेकर।
सदा मुस्कान भरतीं हैं हृदय अपना सहज देकर।
वहीं यमुना थिरकती हैं वहीं वृंदा चहकती हैं।
वहीं मुरली चमकती है वहीं गोपी दमकती हैं।
वहीं लीला सदा होती सदा मोहित सभी बाला।
वहीं गौवें सभी चरतीं खुशी से झूमते ग्वाला।
सुहाना दृश्य अति मोहक छटा अदभुत निराली है।
सभी दौड़े चले आते सुशोभित कर गहे प्याली।
रिझाते श्याम मनमोहन नचाते नाचते गाते।
सकल व्रज भूमि रंगीली सभी सुख प्रीति रस पाते।
यहां रहते रसिक प्रेमी सभी श्री कृष्ण में जीते।
हुए सब प्यार में अंधा मधुर श्री श्याम रस पीते।
सभी करते भजन कीर्तन सभी में स्नेह छाया है।
सभी आत्मज स्वजन परिजन सभी की ब्रह्म काया है।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[25/02, 17:50] Dr.Rambali Mishra: नाजायज इश्क
जायज नाजायज नहीं, होती कोई चीज।
सभी कृत्य के मूल में, अभिमति सहमति बीज।
नाजायज वह इश्क है, जिसमें दूषित भाव।
जनमत के विपरीत यह, छोड़े कुष्ठ प्रभाव।।
अनुचित नाजायज सदा, नहीं मूल्य का मेल।
कुत्सित अत्याचार का, इश्क घिनौना खेल।।
इश्कबाज बर्बाद का, मत पूछो कुछ हाल।
कामभावना ग्रस्त वह, रचता सदा कुचाल।।
अति नाजायज इश्क है, खतरनाक भूचाल।
इस संवेदनशील को, समझो गंदा नाला।।
नाजायज समुचित कहां, यह समाज प्रतिकूल।
कामी दैहिक सुख निमित, कृति समझे अनुकूल।।
प्रेम मोह अनुराग में,हो प्रिय शिष्ट विचार।
व्यष्टि सृष्टि की सतह पर, हो जायज व्यवहार।।
नाजायज शुभमय नहीं, यह अनुचित आभास।
सत्व मोहब्बत प्यार का, हो उत्तम अहसास।।
नाजायज हर वस्तु का, हो दिल से प्रतिकार।
इश्क बुरी वह बात है, जिससे हो तकरार।।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी।
[26/02, 17:55] Dr.Rambali Mishra: मनोरमा (पंचचामर छंद)
मनोरमा सदा वही रमण भ्रमण करे हृदय।
चला करे बहा करे बसा करे सदा हृदय।
कहीं न छोड़ संग को बनी सुभामिनी रहे।
चला करे कदम कदम मिले वचन मधुर कहे।
सरस सलिल सरोजिनी सुभागिनी सुहावनी।
परम धरम करम रहम मरम नरम सदा बनी।
प्रिया मनोनुकूल वृत्ति अर्थ रस प्रधानता।
शिवांगिनी शुभांगिनी कृपालुता दयाद्रता।
किया करे सहर्ष काम प्रेम भाव सर्वदा।
नहीं कभी न जानती सकारती है नर्मदा।
विचार भावना पवित्र उर्मिला सजी खिली।
मनोरम स्वभाव मीत गीत पद्य सी मिली।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी।
[27/02, 15:31] Dr.Rambali Mishra: मां सरस्वती जी की वंदना
अर्थ प्रभाव शब्द मधु भाषा। प्रिय मोहक अनुपम परिभाषा।।
नीतिपरक न्यायी न्यायोचित। विद्या महा ज्ञान सर्वोचित।।
तामसरहित अनीति विरोधी। मां सरस्वती प्रीति पुरोधी।।
त्रिया प्रिया मधुमास अलौकिक। दिव्य धाम शुभ नाम अभौतिक।।
पावन मंत्र हंस बुध नायक। देव पुस्तिका दया विनायक।।
ठीक किया करती मां सबको। रोग मुक्त करती तुम जग को।
अद्वितीय शालीन सुधामय। ब्रह्माणी आनंद शिवामय।।
नुपुर ध्वनित धुन स्वर संगीता। वीण पुनीत रम्य शिव गीता।।
पठनीया ग्रहणीय मनोरम। पूजनीय मां सुंदर अनुपम।।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[27/02, 16:53] Dr.Rambali Mishra: बेरुखी
बेरुखी करो नही उदारवाद भाव हो।
रुख मिले हृदय खिले मधुर मिलन स्वभाव हो।
प्रेम बीज मंत्र का सदा सनेह जाप हो।
द्वंद्व को कभी न पाल शांति तौल माप हो।
मोहनी विचार राह पर सुगंध बयार हो।
बात चीत में सदा दिलेर दिव्य प्यार हो।
संधि की पुकार हो सदाबहार तार हो।
खीझ मत रहे कभी प्रसन्नता अपार हो।
तोड़ना कभी न मन सहज बनो सरल बनो।
जोड़ जोड़ सर्व उर मनुष्यता सदा चुनो।
गांठ बांधना नही मनुष्य हो सुखी रहो।
वंदना समूह की करो नहीं दुखी रहो।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[28/02, 19:12] Dr.Rambali Mishra: मदद (पंचचामर छंद)
मदद करो कहो नहीं समझ यही स्व धर्म है।
सहायता अमोल है यही विशिष्ट कर्म है।
कभी लगे प्रदर्शनी नहीं विराट पंथ पर।
उठे न अंगुली कभी कदा महंथ संत पर।
प्रधान कर्म क्षेत्र है इसे संवारते चलो।
परोपकार भावना रखो हृदय बढ़ो फलो ।
[28/02, 19:34] Dr.Rambali Mishra: अनीति छोड़ भव्य नीति को पकड़ चला करो।
अनित्य त्याग सत्य भाव में सदा जगा करो।
कपट घृणा पछाड़कर सुधार कर समाज का।
अराजकीयता मरोड़ कर विचार हो स्वराज का।
लपेट लो समेट लो कुतर्क भाव त्यग दो।
गुणा करो सुकर्म से सुकर्म को सुहाग दो।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[28/02, 19:36] Dr.Rambali Mishra: मदद (पंचचामर छंद)
मदद करो कहो नहीं समझ यही स्व धर्म है।
सहायता अमोल है यही विशिष्ट कर्म है।
कभी लगे प्रदर्शनी नहीं विराट पंथ पर।
उठे न अंगुली कभी कदा महंथ संत पर।
प्रधान कर्म क्षेत्र है इसे संवारते चलो।
परोपकार भावना रखो हृदय
बढ़ो फलो ।
अनीति छोड़ भव्य नीति को पकड़ चला करो।
अनित्य त्याग सत्य भाव में सदा जगा करो।
कपट घृणा पछाड़कर सुधार कर समाज का।
अराजकीयता मरोड़ कर विचार हो स्वराज का।
लपेट लो समेट लो कुतर्क भाव त्यग दो।
गुणा करो सुकर्म से सुकर्म को सुहाग दो।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[01/03, 17:11] Dr.Rambali Mishra: प्रेम रंग
मापनी 8 रगण
प्रेम का रंग गहरा चटकदार है, प्रेम के गीत गाते चलो साथियों।
प्रेम चढ़ता उतरता कभी भी नहीं, बढ़ रहे को संभालो सदा साथियों।
प्रेम रंगीन मादक मधुर भाव है, जो पिया होश खोया बढ़ा राह पर।
यह सरस रस पथिक प्रिय रसिक राग है, गान करते चलो कर अमल चाह पर।
प्रेम मोहक मधुर पीत पावन अमर, गीत आत्मिक मनोहर तरल शीत है।
दिव्य धारा विचारा रसेदार है , हृद मनोरम महकता सहज मीत है।
रंग चोखा अनोखा मजेदार है, जो चखा बह हुआ विश्व का प्रिय सुमन।
धन नहीं चाहता प्रेम का मन कभी, प्रेम ही प्रेम का नित्य सुंदर वतन।
प्रेम खातिर बहा दी सकल जिंदगी, वह चहकता हुआ आसमां पर दिखा।
रंग प्यारा बना सप्त रंगी धनुष, की तरह प्रेम पत्री जगत को लिखा।
प्रेम संवेदना का मधुर स्वर लहर, देखकर मन मुदित अति प्रफुल्लित हुआ।
देख लो रंग इसका गमक जाओगे, रोम नस नस अमी रस प्रवाहित हुआ।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी।
[02/03, 19:13] Dr.Rambali Mishra: रंगीन दोहे
मुस्कानों से स्वागती, आज करे सम्मान।
हंस कर प्रिय संवाद हो, यह है मधुर विधान।।
स्वागत हो मधु प्रेम का, रसना पर हो क्षीर।
पीर मिटे सब देह की, आंखों में प्रिय नीर।।
सुंदर मानवता कहे, आओ बैठो पास।
संगति उत्तम भाव से, बुझे मनुज की प्यास।।
अंकों में भरती रहें, भावुक मन की भूख।
सारी कुंठित भाव की, सरिता जाये सूख।।
चोंच चोंच का मिलन हो, चुम्बन से सत्कार।
बाहों में बाहें खिले, जग हो एकाकार।।
सब सबसे घुल मिल रहें, मिटे पराया भाव।
आत्म दृष्टि साकार हो, मिटे कष्टमय घाव।।
सतत वृद्धि हो स्नेह की, प्रीति वृष्टि घनघोर।
एकीकृत हो सकल मन, रसे प्रेम चहुंओर।।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[03/03, 14:39] Dr.Rambali Mishra: होली
कन्हैया अब चले आओ, सुरंगी आ गई होली।
महकता प्रेम फागुन है, फ़िजा में छा गई होली।
चले हम आज वृंदावन, सुना है श्याम आएंगे।
सभी पर चढ़ गया है रंग, दिल धड़का रही होली।
बजाकर बाँसुरी कान्हा, बुलाना गोपियों को फिर।
कन्हैया देख फागुन के, तराने गा रही होली।
चली आई कन्हैया देख ,राधा भी सिमटती सी।
नयन में रंग भर के राधिका छलका रही होली।
हुआ है लाल गोकुल और, ब्रज रज पर चढ़ी लाली।
मचा है आज हुड़दंगा, रसीली हो गईं होली।
हुए सब आज नर नारी, गुलाबी , लाल, पीले से।
दिखे हैं श्याम केसरिया, सहज मुस्का रही होली।
हमें बस प्यार कान्हा से , बहुत प्रिय रंग भाया है।
हमें रंगीन कर कान्हा, बहुत तरसा रही होली।
[03/03, 18:56] Dr.Rambali Mishra: राधा कृष्ण (दोहे)
महिमा राधा कृष्ण की, अतुलित अनुपम दिव्य।
दोनों एकाकार प्रिय, परम भव्य नित नव्य।।
तत्वहीन संसार में, राधेश्याम अनंत।
पूजित ये हर काल में, इनका कभी न अंत।।
प्रेम सांस्कृतिक सिंधु के, ये हैं रचनाकार।
कलाकार निर्गुण सगुण, प्रेम गंग साकार।।
इनके स्नेहिल पंथ पर, जो चलता है नित्य।
हो जाते उसके सहज, पावन मोहक कृत्य।।
सदा राधिका संग में, करती रहतीं नृत्य।
अनुरागी श्री कृष्ण की, सारी कृतियां स्तुत्य।।
राधा कृष्ण अमर अमिट, प्रेम रूप अमरत्व।
ब्रह्म द्वैत अद्वैत भी, अजर सत्व पुरुषत्व।।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी।
[04/03, 19:13] Dr.Rambali Mishra: भारतीयता
भारतीय संस्कृती अनादि से अनंत तक।
दयालुता कृपालुता कृतज्ञता दिगंत तक।
स्वाभिमान सर्वमान ज्ञानश्रेष्ठ साधना।
दिगंबरीश दिव्यता महानुभाव भावना।
चर्म देह मोहमुक्त वासना नकारती।
परार्थ प्राण मोह त्याज्य आतमा पुकारती।
संत वाक्य स्नेह प्यार अद्वितीय भाव है।
विदेश को नकारती स्वदेश ही स्वभाव है।
शैल हिम विशाल काय मस्तके सुशोभिते।
अजानबाहु राम कृष्ण दिव्य धर्म सोचते।
मंत्रणा अनूपमा हजारिका सुधारिका।
सहस्र नाम वैष्णवी अमर्त्य लोक धारिका।
भार विश्व का सदा उठा रही सुभारती।
सुजान शब्द कोश ज्ञान रत्न को संवारती।
देव लोक पालिका अजेयता विजेयता।
महान भारतीयता सहिष्णु भव्य श्रेयता।
शिष्टता विशिष्टता समाचरण सुशीलता।
रुचिर शुचिर मधुर महक पवित्र गंध की लता।
भारतीय यज्ञ भूमि हव्य द्रव्य औषधी।
महा पुरुष तपस्थली स्वयं बने सदा सुधी।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी।
[05/03, 11:35] Dr.Rambali Mishra: अजनबी
जिससे परिचय है नहीं, उसे अजनबी जान।
जब होती अंतः क्रिया, हो जाती पहचान।।
सभी अपरिचित जन यहां, रखें अजनबी भाव।
मिल जाने पर एक हो, डालें अमिट प्रभाव।।
जब तक हम नहिं जानते, तब तक सब हैं भिन्न।
ज्ञान हुआ परिचय मिला, सारे भिन्न अभिन्न।।
नहीं पराया है मनुज, सबसे मिलिए दौड़।
यह समाज सागर जटिल, सरल करो नित पौंड़ ।।
बेगानापन दूर हो, अगर मिलन की चाह।
निर्मल अंतस में छिपी, हुई रसीली राह।।
जबतक कोई अजनबी, तबतक वह है व्यर्थ।
हो जता संबंध जब, मिल जाता है अर्थ।।
संबंधों का जाल है, अतिशय कठिन समाज।
अगर समझ में आ गया, ध्वस्त अजनबी राज।।
इसे जानना सहज है, मन में हो अनुराग।
सबको अपना मान लो, भाव पराया त्याग।।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी।
[05/03, 15:54] Dr.Rambali Mishra: होली
होली हिंदू पर्व है, खुशियों का त्योहार।
पावनता की महक है, सत्य विजय आधार।।
जो सच्चाई पर टिका, उसकी होती जीत।
कपट दंभ की नींव पर, खड़ा असुर भयभीत।।
आध्यात्मिक श्रद्धा अडिग, इसकी कभी न हार।
ईश्वर में विश्वास अति, लाता सुखद बहार।।
जल जाती है होलिका, डायन घृणित विचार।
बच जाता प्रह्लाद है,ईश्वर करते पार।।
इस उत्सव का जगत में, है अतिशय सम्मान।
इसके साक्षी ईश हैं, परम पिता भगवान।।
हिरणाकश्यप असुर का, वध कर डाले ईश।
वहीं पुत्र प्रह्लाद के, रक्षक खुद जगदीश।।
सदा धर्म की विजय का, होता नित यशगान।
सहते रहते रात दिन, असुर नित्य अपमान।।
पर्व अमर रंगीन है, सभी खेलते रंग।
मस्ती में सब झूमते, सदा जमाये भंग।।
बुरा न मानो होली कह कह, सब होते रंगीन।
गाते दिखते कर लिये,ढोल मजीरा बीन।।
प्रिय आह्लादक दृश्य यह, अति उत्साह उमंग।
जोशीले अंदाज में, सकल अंग बहुरंग।।
जय जय जय जय सत्य से, गूंज उठे आकाश।
अंधकार का अंत हो, चारोंतरफ प्रकाश।।
इसीलिए त्योहार यह, देता शुभ संदेश।
कण कण में प्रभु को लखो, रंगो अपना वेश।।
साहित्यकार डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी।
[05/03, 16:55] Dr.Rambali Mishra: शक्ति स्वरूपा मातृ शारदा
सदा स्वतंत्र श्रृष्टि कर्म लोक धर्म पालिका।
बहुल बनी विवेकिनी अनेक एक साधिका।
नितांत शांत मौन धाम प्रेम रूप राधिका।
असुरअरी सुसाधु चित्त कंस वंश वाधिका।
समय महान एक तुम सुकाल हो अकाल हो।
कुकृत्य सर्व हारिणी परोपकार चाल हो।
महंत संत सेविका महा मही सुपाल हो।
अनंत देव देवियां समेत यज्ञ माल हो।
निकाय नित्य नायिका नमामि नम्र नर्मदा।
सहानुभूति सभ्य शैव शीत शुद्ध सर्वदा।
अलक्ष्य लक्ष्य लेखिका ललाट लुभ्य लालिता।
कवित्त वित्त पोषिका सुपालिनी स्वपोषिता।
वचन सुखद प्रचारिका महातमा विचारिका।
सरल विनय विनीत विज्ञ विद्य सिंधु धारिका।
प्रचंड ज्ञानदायिनी सरस्वती सुपूजिका।
अधर मधुर करो सदैव मातृ देहि जीविका।
रचनाकार: डॉक्टर रामबली मिश्र वाराणसी
[06/03, 11:06] Dr.Rambali Mishra: होलिका दहन
होलिका दहन करो बुरी प्रवृत्ति मार कर।
धर्म का वकील बन अधर्म को नकार कर।।
दर्प मद अहं जले धरा शरीर निर्मला।
कालिमा मिटे सदैव भक्ति भाव उज्ज्वला।।
शोध सत्य पुण्य काम पाप को विनष्ट कर।
साध्य शिव शिवत्व हो कुभाव को नकार कर।।