कविता – नई परिभाषा
मेरे जैसा दिन भी टूटा
शाम हुई
ज्यों धुँधली आशा
गढ़ता रहा
नई परिभाषा
स्वयं स्वयं के मन की कोई
धूम्र में जैसे धँसी निराशा
लगा आईना हाथ से छूटा
बूढ़ी होती
दुःखी दुपहरी
अस्ताचल
सविता को देखी
लाठी टेके सन्ध्या आती
लगे बुढ़ापा रात सरीखी
रजनी को ज्यों तम ने लूटा
भोर शोर के
सेतु के जैसे
आशा रश्मि
फूट ही आई
बाँधे रहती कब तक कैसे
अरुण ने रथ जब तेज चलाई
जीवन से दिन रहा न रूठा