कविता – ‘टमाटर की गाथा”
कविता – ‘टमाटर की गाथा’
आनंद शर्मा
घर में उच्च स्तर की
अफरा-तफरी थी
गृहलक्ष्मी ,
चंडी के स्वरूप में
बिफरी थी
सबके सर पर
गहन पूछताछ की तलवार
लटक रही थी
पारिवारिक रिश्तों में
विश्वास की दीवार
पहली मर्तबा ऐसे
चटक रही थी
आखिर मुद्दा चोरी
का था
भरोसे की थाली में
हुई मोरी का था
दृश्य गंभीर था
विस्फोटक था
ह्रदय विदारक था
क्योंकि
घर से पला पलाया
सुघड़ सुंदर हष्ट पुष्ट
गोल मटोल लाल वाला
एक बड़ा टमाटर
नदारद था।
जमीन खा गई
या आसमान निगल गया
सुबह तक तो था
अब किधर गया
माँ की गर्जना से
सब हड़बड़ाए
हिम्मत जुटाकर
सबसे पहले
पिता जी आगे आए
और धीमी आवाज में मिमिआए
तुम्हे तो अच्छे से पता है
मुझे टमाटर बिल्कुल नही भाता
मैं तो टमाटर बचपन से ही
नही खाता।
तफ्तीश जारी थी
अब चिंटू की बारी थी
माँ ने प्रश्न चिन्ह वाली निगाहों से
चिंटू की तरफ देखा
चिंटू ने झट से
अपना पांसा फेंका
मैं तो टमाटर सिर्फ
कैचअप में ही खाता हूँ
और वो तो मैं आपसे ही
मंगवाता हूँ
हां तुम तो बस बैठे-बैठे
ऑर्डर किया करो
गाड़ी डिरेल होते देख
चिंटू ने माँ को टोका
उनको बीच में ही रोका
माँ टमाटर ..
अरे हाँ ! माँ ने यू टर्न लिया
और इस बार
आशा ताई की तरफ
मुँह किया
आशा ताई की सांस
आफत में लटकी थी
क्योंकि अब
सबके शक की सुई
उन्हीं पर अटकी थी
उसके सामने अब
एक नहीं
तीन थानेदार थे
वही चोरनी है
ये मनवाने की लिए
सभी तैयार थे
लेकिन आशा ने
आत्मविश्वास के साथ
अपना पक्ष रखा
भाभी आपको तो पता है
मुनिया के पापा के
पेट में पथरी है
और जब से डाक्टर ने बोला है
कि टमाटर कंकर पत्थर बनाता है
हमारा घरवाला तो टमाटर
घर में ही नहीं लाता है।
सबके जवाबों में एक सवाल
वहीं का वहीं था
कि इतनी मशक्कत के बाद भी
टमाटर घर में नही था
तभी माँ ने अचानक सबको
शशशश्श……
चुप रहने का इशारा किया
चलती सभा से
एक तरफ किनारा किया
कट-कूट की आवाज के पीछे
वो अलमारी की तरफ
जा रही थी
शायद उन्हे उम्मीद की कोई किरण
नजर आ रही थी
उनका शक सही था
वो वहीं था
अलमारी के पीछे
एक मोटा चूहा वही लाल मोटा गोल
टमाटर खा रहा था
और माँ का पारा सातवें आसमान
की तरफ जा रहा था।
अगले ही पल माँ
श्रद्धा और लाचारी
के मिश्रित भाव से मुस्काईं
एक बिलकुल नई बात उनके
मन मस्तिष्क में आई
हाथ जोड़कर उन्होंने अपनी
प्रार्थना को दोहराया
और आवाज को ऊंचा करके बोली
देखो हमने गणपति के वाहन को
महंगे वाले टमाटर का भोग लगाया
शोर सुनकर चूहा
टमाटर छोड़ भाग गया
गणपति धारी महंगा भोग
अस्वीकार गया
यूँ तो
घर में लंबोदर के इतने वाहनों
का वास था
बावजूद इसके ये सरासर
एक महंगे पुण्य का ह्रास था
खैर माँ ने चूहा जूठित
टमाटर को उठाया
बड़े ही भारी मन से
उसे बाहर फेंकने के लिए
जैसे ही हाथ बढ़ाया
तभी पड़ोस की झुग्गी का
एक बालक सामने आया
माई कुछ खाने को मिलेगा?
इस बार माँ के चेहरे पर
श्रद्धा और लाचारी नहीं
गर्व और अमीरी की मुस्कान थी
न माँ हैरान थी न परेशान थीं
जूठित भाग को माँ ने काटा
उस टमाटर को
चार भागों में बांटा
नमक लगाकर
बच्चे को देते हुए बोली
ले … तू भी क्या याद करेगा
महंगाई के इस दौर में
मंहगा टमाटर खा
उस टमाटर के रूप में
माँ उसे महंगाई,
अपनी लाचारी.
पुण्य कमाने की दबी इच्छा
लाल टमाटर को न फेंकने का संतोष
न जाने क्या क्या खिला रही थी
लेकिन इन सब से अनभिज्ञ
गरीबी में महंगा टमाटर खाकर
बच्चे की आत्मा
गद-गद हुई जा रही थी
गद-गद हुए जा रही थी।।