कविता (घनाक्षरी)
1
सन-सन बहेले बयार फूटे रोम-रोम,
काँपेले शरीर हाथ-गोड़ कठुवायल बा।
हथवा से पनिया के छूवे के ना मन करे,
लागे कि फिरिजवे से काढ़ि के धरायल बा।
घनघोर कुहरा में आवे ना नजर कुछ,
जइसे कि चहुँ ओर धुआँ छितरायल बा।
दिनवो में लागत बा छवले अन्हरिया बा
जाड़ा के डरन कहीं सुरुजो लुकायल बा।
2
जाड़ा के लहर अस बनिके कहर गिरे,
ठरेले पवन जस होत हिम पात बा।
लागेला करंट जस छुवले प पनिया के,
कटि-कटि गिरि जाई अँगुरी बुझात बा।
ओढ़ि के रजाई सब घर में ढुकल बाटे,
बहरे निकरले से मनवा डेरात बा।
ठिठुरत देहियाँ बा सिकुड़त चमड़ी बा
बहेले बयार त करेजा हिलि जात बा।
✍️जितेन्द्र कुमार ‘नूर’
असिस्टेंट प्रोफेसर
डी ए वी पी जी कॉलेज आज़मगढ़