कविता करने का लाइसेंस (हास्य-व्यंग्य)
कविता करने का लाइसेंस (हास्य व्यंग्य)
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सरकार जिस क्षेत्र में चाहे लाइसेंस की व्यवस्था कर सकती है अर्थात उस क्षेत्र में अगर किसी को कोई गतिविधि करनी है तो उससे पहले उसको लाइसेंस लेना पड़ेगा। लाइसेंस मिल जाने के बाद ही वह व्यक्ति उस कार्य को कर सकेगा । एक दिन सुबह जब सारे कवि सो कर उठे तो अखबार पढ़ने पर उनको पता चला कि अब कविता करने पर लाइसेंस लेना अनिवार्य है । सरकार ने “कविता लाइसेंस विभाग” का गठन करके हर जिले में एक अधिकारी और एक बाबू नियुक्त कर दिया है । जिसको कविता करनी है ,वह लाइसेंस के लिए आवेदन करे।
हमें भी कविता करनी थी । सो हम भी बताए गए पते पर आवेदन-पत्र तैयार करके लाइसेंस-दफ्तर पहुँच गए । वहाँ आठ-दस कवियों की लाइन लगी हुई थी। अफसर से पहले बाबू आवेदन-पत्र देखता था । फिर कवि का चेहरा देखता था । फिर उसके दोनों हाथों को खाली देखकर जेब को भेदने वाली दृष्टि से निहारता था और जब उसे कवि की जेब खाली नजर आती थी तो कहता था ” तमाम नियमों के रास्तों से गुजरना पड़ता है । सरकारी विभागों में लाइसेंस इतनी जल्दी नहीं बनते । ” सुनकर सारे कवि एक-एक करके मुँह लटकाए हुए वापस आ रहे थे । सारे कवि सरकार को और उसके लाइसेंस-राज को कोस रहे थे।
हमारा नंबर आया तो उसने वही शब्दावली दोहराई। हमने कहा “क्यों नहीं बनते लाइसेंस ? बनने में काम ही कितना-सा है ? हमारा नाम लिखो ,कविता नोट करो और अपना नोट लिखकर अधिकारी को आगे सरका दो ।”
वह रहस्यपूर्ण कुटिल हँसी के साथ बोला “नोट ऐसे नहीं लिखा जाता । नोट के साथ नोट लिखने की सरकारी दफ्तरों में परिपाटी स्वतंत्रता के बाद से चली आ रही है । हम परंपरावादी लोग हैं । किसी भी हालत में परंपरा नहीं तोड़ेंगे ।”
हमने कहा “तुम्हारे लिए यही एक परंपरा रह गई है ? आजादी के लिए कितने लोग जेल चले गए ,फाँसी के फंदे पर लटक गए , घर-बार त्याग दिया, क्या वह परंपरा नहीं थी ?”
बाबू बोला “हमें तो दफ्तर और बाबू की परंपरा से मतलब है । ”
हम बाबू के हाथ से आवेदन-पत्र छीन कर अधिकारी के पास पहुंचे । अधिकारी सब कुछ देख रहा था मगर चुप था । हमारे अंदर पहुंचते ही उसने कहा “नियमानुसार बाबू से अनुमति लेकर ही आपको अंदर आना चाहिए था । यह नियम-विरुद्ध है ।”
हमने कहा “आपका बाबू खुलेआम रिश्वत लेकर लाइसेंस बना रहा है । उसका आचरण नियम विरुद्ध है ,क्या यह आपको नहीं दीखता ?”
वह बोला “अफसर से उलझना नियम के विरुद्ध कहलाता है । आपके ऊपर मैं कानून की एक और धारा लगा दूंगा ।”
हमने कहा “आप सौ धाराएँ लगाओ, लेकिन हमारा लाइसेंस तो बनाओ ।”
वह बोला “लाइसेंस हर्गिज भी प्रक्रिया पूरी किए बिना नहीं बनेगा ।”
हमने कहा “अब आपके ऊपर कौन अधिकारी है ?”
वह बोला “ऊपर छत है और छत के ऊपर नीली छत है अर्थात ईश्वर ही आपकी अपील सुन सकता है ।”
दुखी होकर हम भी बिना लाइसेंस बनवाए वापस आ गए । घर आकर लाइसेंस बनवाने की पूरी नियमावली पढ़ी तो हैरान हो गए । उसमें लिखा हुआ था कि हर साल लाइसेंस का नवीनीकरण भी कराना पड़ेगा अर्थात हर साल फिर से बाबू के पास जाकर उससे अनुनय-विनय करना होगा। उससे नोट लिखवाने के बाद फिर अफसर के पास जाकर फाइल पास होगी और तब जाकर लाइसेंस का नवीनीकरण होगा।
अधिनियम में सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात यह थी कि कविता लिखने के बाद उसका अनुमोदन जब तक अधिकारी नहीं कर देगा ,तब तक उसे कविता नहीं माना जाएगा। अनुमोदन की बात पढ़कर हमारे तन-बदन में आग लग गई। हमने सोचा कि अधिकारी को कविता की क्या तमीज जो वह हमारी कविता का अनुमोदन करेगा। वह केवल अड़ंगे लगाएगा, अपने अधिकारों का दुरुपयोग करेगा और हमारा शोषण-उत्पीड़न के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा । ऐसी परिस्थितियों में तो हमारे कविता लिखने का उत्साह ही समाप्त हो जाएगा ।
हमने धड़ाधड़ कवियों को फोन मिलाए। सब हमारी बात से सहमत थे। हमने कहा ” यह अधिकारी द्वारा कविता लिखने के मामले में अनुमोदन की बात बिल्कुल गलत है । इसे वापस लेना होगा। दूसरी बात यह है कि कविता के लाइसेंस का नवीनीकरण हरगिज नहीं होना चाहिए । एक बार लाइसेंस बन गया तो आजीवन लाइसेंस बना रहना चाहिए । वरना हम तो हर साल भिखारियों की तरह सरकारी दफ्तर में याचना का कटोरा लेकर खड़े नजर आएँगे और धक्के खाएँगे । तीसरी बात यह है कि कविता का लाइसेंस अर्थात कितने लोग कविता लिख रहे हैं अगर सरकार इस बात का लेखा-जोखा रख रही है तब तो कोई आपत्ति की बात नहीं है लेकिन इसके लिए ऑनलाइन आवेदन शत-प्रतिशत रूप से स्वीकार होना चाहिए । इसमें किसी भी कवि को परेशानी का सामना नहीं करना चाहिए। नेता ,अफसर और बाबू -इनकी मिलीभगत से स्वतंत्रता और प्रजातंत्र दोनों के चेहरे पर कालिख पुत चुकी है। कवि-समाज में भयंकर आक्रोश है । कोई भी अच्छा कवि इस समय कविता करने के लिए इच्छुक नहीं है । कौन अधिकारियों और बाबुओं के दफ्तरों में जा-जाकर चप्पलें घिसे और उनकी खुशामद करके लाइसेंस बनवाए , उनका हर साल नवीनीकरण करवाता फिरे, हर कविता की रचना के बाद अधिकारी से उसके कविता होने का अनुमोदन कराए।
इन सबसे बेहतर हमने यही सोचा कि कविता लिखने का काम बंद करो । एक नेता जी का परामर्श आया । बोले “हमारी तरह तुम भी जनप्रतिनिधि-सभाओं में पर्चे छीनने, आशिष्ट असंसदीय भाषाओं का प्रयोग करने तथा कुर्सी और माइक छीनने और फेंकने के काम शुरू कर दो ।” सुझाव अपने आप में हास्य-कविता का विषय था । लेकिन क्या करें ,हम बुरी तरह फँसे हुए थे । बिना लाइसेंस बनवाए हम कुछ भी नहीं कर सकते थे।
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
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