“ कविओं के स्वर्णिम युग “
डॉ लक्ष्मण झा “परिमल ”
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पहले विषयों का
अभाव होता था ,
शब्द नहीं मिलते थे !
राग नहीं मिलते थे !
रस सारे के सारे
सूख गए थे !
ना पीड़ा थी,
ना क्रंदन था
कवि को उतना
नहीं अनुभव था !!
कलम हाथों में
रह जाती थी ,
नींदों में हम
खो जाते थे ,
स्याही भी सूख जाती थी ,
स्वप्नों में भी कोई
कल्पना नहीं जगती थी !
सूने कमरों में भी
ख्यालों की थाली
कभी नहीं बजती थी !!
बाथ रूम में भी
गुनगुनाना भूल गए ,
सीटी बजाना भी
हम भूल गए !!
पर समय इस
तरह बदल गया है ,
अब विषय ही विषय
चारों तरफ फैला गया है !!
कविओं का अब जमाना
आ गया फिर से ,
कल्पनाएं अंगड़ाईयां लेने लगी ,
कोरोना के कहरों पर कविताएं
हजार बनने लगी !
लॉक डाउन की भयावह
तस्वीर उभर आती है !!
अनगिनत मौतें ,
बलात्कार ,राष्ट्रद्रोही
बेरोजगारी ,महंगाई ,
पलायन की बातें
लाख निकाल जातीं हैं !
किसान आंदोलन के
मसले ,नागरिकता कानून
तो छाये हुये हैं
पेट्रोल ,डीजल ,रसोई गैस
और खाद्य पदार्थ के मसले
स्वतः आए हुए हैं !!
विषय ,रस ,अलंकार ,
कल्पना राग सब के
सब मिलते जा रहे हैं !
अब नींद कहाँ आती है ,
अब रातों में भी
सीटी बजा रहे हैं !!
कलम आवाध
गति से चल रही है ,
नयी -नयी रोज
कविताएं बन रही है !!
बहुत दिनों के बाद
अब हम इतराएंगे ,
स्वर्णिम युग के
गीतों को फिर से दुहराएंगे !!
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डॉ लक्ष्मण झा “परिमल ”
साउंड हेल्थ क्लिनिक
एस ० पी ० कॉलेज रोड
दुमका
झारखंड
भारत
06.08.2021.