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5 Mar 2023 · 2 min read

#कल होली थी

🕉

{ मातृभूमि पर प्राण न्योछावर करने वाले वीर सैनिक की पार्थिव देह घर पहुंची है। चारों तरफ सगे-संबंधी शोकमग्न खड़े हैं। प्रतिष्ठित गण्यमान्य नागरिक भी उपस्थित हैं। अधिकारी-उच्चाधिकारी व जनप्रतिनिधियों के साथ सेना के अधिकारी भी अपने वीर साथी को अंतिम विदायी देने को खड़े हैं। तभी वीर बलिदानी की युवा पत्नी बिछुड़े जीवनसंगी के चरणों में प्रणाम करके दो पग पीछे हटती है। बायीं भुजा शरीर के साथ सटी हुई हाथ नीचे की ओर जाता हुआ और दायीं भुजा धीमे-धीमे ऊपर को उठते हुए हथेली मस्तक के समीप जाकर वीर सेनानी को अंतिम सैन्याभिवादन की मुद्रा में ठहरी हुई। धरती-आकाश स्तब्ध हैं। दिशाएं नि:शब्द हैं। तभी उस वीरबाला का स्वर गूँजता है, “तुम झूठ कहते थे . . . “, समस्त वातावरण पर नीरवता पसर जाती है, केवल उस सिंहनी की गर्जना सुनाई दे रही है, “झूठ कहते थे तुम . . . कि तुमको . . . सबसे अधिक मुझसे प्यार है . . . आज मैंने जान लिया . . . सारे जगत ने देख लिया . . . तुम मुझसे नहीं . . . सबसे अधिक मातृभूमि से प्यार करते थे . . . ।” पीपल का पत्ता धरती पर गिरे तो उसका नाद सुनायी दे। चहुंओर अट्ठाहस करते नीरवता के साम्राज्य को चीर गया वो रुदन जो उस वीरपत्नी के साथ-साथ वहाँ उपस्थित सभी कंठों से निकल रहा था। अश्रुओं ने पलकों का बांध तोड़ डाला था। }

{ उस दिन के बाद जब होली आयी। उसके अगले दिन वही वीरपत्नी अपने बिछुड़े साथी से बतिया रही है . . . “कल होली थी . . .” }

✍️

★ #कल होली थी ! ★

कल होली थी
रंगों में खूब नहाए हम
इक रंग था तेरे प्यार का
मनवीणा की झंकार का

कल होली थी . . . . .

स्मृतियों का गुलाल लेकर हाथों में
सूरज दिन भर ढूँढता रहा
तपा तपन अभिसार का
अनजाना मनुहार का

कल होली थी . . . . .

झोली भरती गई छलकती गई
पलकों से मोती बरसते रहे
बैरी बिरहा के अँधियार का
दिल साक्षी रहा कथासार का

कल होली थी . . . . .

सांसों में सांसें घुली तो थीं
मेंह झमाझम बरसा था नेह का
अंतिम छंद काव्य अलंकार का
नाद गुंजित हुआ मदन-टंकार का

कल होली थी . . . . .

दो मतवारे नयनों की छुअन
वो महक अभी तक खिली-खिली
पथ नया नए संसार का
मैं हार हुई जीत का कि हार का

कल होली थी . . . . .

नीति-नियम स्वर्ण की रेखा
चर्मकार से कौन कहे
ठन ठन ठन ठन कर्म ठठियार का
घन घनाघन बाजे लोहार का

कल होली थी . . . . .

हे मेरे मनमोहन मैं जी गई
प्राणप्रिये मुझे नाम दिया
वंदन जीवनकला-कलाकार का
जननी जन्मभूमि सत्कार का

कल होली थी . . . . .

केसरिया पहन जँचे थे तुम
माँ मस्तक चूमे झुके थे तुम
न आया ढंग वणज-व्यापार का
झुँड काटा भी तो सियार का

कल होली थी . . . . .

बोलो फिर क्यों नहाए तुम
कहाँ किससे खेले होली
मेरी किश्ती संग मेल मँझधार का
मौन अखरता है पतवार का

कल होली थी . . . . .

तुम गए तो गए प्रियतम
हम रहे नहीं रहे
वक्ष बींधता शूल प्रतिकार का
अश्व अढ़ाई घर सरके सरकार का

कल होली थी . . . . .

कल होली थी
सोती खिड़कियां ऊँघते वातायन
मन तन साकार आमंत्रण स्वीकार का
सांकल मौन रहा बंद द्वार का

कल होली थी . . . . . !

#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२

Language: Hindi
76 Views
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