*कलियुगी मंथरा और परिवार*
समीक्षा की इच्छा ख़तम हो गई,
प्रतीक्षा की इच्छा ख़तम हो गई।।
परीक्षा की इच्छा नहीं रह गई, बस
सुरक्षा की इच्छा है घर कर गई।।
उजाले से चलकर अंधेरे में पहुंचे,
अंधेरा उजालों में घर कर गई।
उसे चाहिए मेरे सूरज में हिस्सा,
जो करना उसे था बस वो कर गई।।
अंधेरे का डर और सुरक्षा की चाहत,
कठिन देखो सारी डगर कर गई।
हिला न सका था जिसे ज्वार भाटा,
वो छोटी नदी की लहर कर गई।।
सभी ने है देखा कहर उस लहर का,
है माना की वो तो गदर कर गई।
है अपनों की साजिश में ऐसा फंसा,
की खुशहॉल जीवन जहर कर गई।।
है तेरा सफर, है डगर तेरी मंजिल,
मगर जाते जाते खबर कर गई।
दिखाकरके खुद का नंगापन ” संजय”,
खबरदार सारा शहर कर गई।।