कलम
कलम!
रुको न, झुको न।
न तो टूटो ही।
अभी तेरे पेट में
हर्ष और विषाद है बहुत।
आहत भूत का अवसाद एकजुट।
भविष्य का खाली कोख अद्भुद।
नाग का विष और ‘मंथन’ का अमृत
तर्क और विवेक से प्रबुद्ध।
गंगा की बात छोड़ो
बाकी है प्रवाहित होने को
तेरे मुखारविंद से
सातों समुद्र।
अनन्त शौर्य और सौन्दर्य के मालिक
अविरल,निर्मल प्रवाह से
युग को बनाना बाकी है विनम्र।
तथा
रात्रि व दिवस को
शोषण के विरूद्ध उग्र।
अनन्त हरि की भाँति
उसकी अनन्त अनुभूति
तेरे गह्वर में क्यों रहे गुप्त?
जागते रहो मेरे कलम,
मेरे सोने से पूर्व हो जाना नहीं तुम सुप्त।
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अरुण कुमार प्रसाद