कलम
ग़ज़ल _ मिटा दे माँग का सिन्दूर
मचलती है दहकती है,लगे अंगार लिखती है।
कलम मत पूछना यारो, हसीं अशआर लिखती है।
सरे बाज़ार लुट जाये बहिन बेटी यूँ जब कोई,
लगे जो चीखने उस रूह की,चीत्कार लिखती है।
मिटा दे माँग का सिन्दूर जब अपने ही हाथों से,
लगाए दाग दामन पर वहीं,व्यभिचार लिखती है।
लगी करने हवाले आग के मासूम बेबस को,
तजी शर्मो-हया सारी,उसे बदकार लिखती है।
गला जो घोंट देती है जिगर के अपने टुकड़े का,
लगे जो डूबने माँ का,वही किरदार लिखती है।
मिला जो हमसफर मुझको,कदम अब रोकना ना तुम,
लगा जो इश्क का ऐसा,कहीं दरबार लिखती है।
लगें जब छीनने अधिकार बेबस मजलूमों के ‘देव’
सियासत का घिनौना रोज का,व्यापार लिखती है।
✍शायर देव मेहरानियाँ _ राजस्थानी
(शायर, कवि व गीतकार)
slmehraniya@gmail.com