करुणा के बादल…
करुणा के बादल…
फिर बरसें प्रभु जग में तेरी,
करुणा के बादल।
हरी-भरी बसुधा, खुशियों की,
नदी बहे छलछल।
नदिया-सागर-ताल-सरोवर,
सब ही रीत गए।
सुख में गोते खाने के दिन,
जैसै बीत गए।
कुदरत लेकर आती अब तो,
रोज नयी हलचल।
सावन तो आता है लेकिन,
शुष्क चला जाता।
अंधड़ ऐसा आता, घर की
नींव हिला जाता।
खिलने से पहले मुरझाते,
आशा के शतदल।
परिंदों के नीड़़ उजड़ गए,
सूने वन-उपवन।
आपस में ही रगड़ा खाकर,
सुलगा करते वन।
कहाँ लगी है आग, बताती
आती जब दमकल।
हुए प्रदूषित मृदा-जल-वायु,
मिटे तत्व पोषक।
रक्त चूसते निर्बल जन का,
खुले आम शोषक।
कौन बताए कैसा होगा,
आने वाला कल।
भौतिक सुख के जोड़-तोड़ में,
हुए सभी अंधे।
भूल संस्कृति-सभ्यता अपनी
चुनें गलत धंधे।
तू ही सुझा राह अब कोई,
मन है बहुत विकल।
© डॉ0 सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ0प्र0)
“साहित्य उर्मि” में प्रकाशित