जिन्दगी के कुछ लम्हें अनमोल बन जाते हैं,
कर्मठता के पर्याय : श्री शिव हरि गर्ग
अब तो ख़िलाफ़े ज़ुल्म ज़ुबाँ खोलिये मियाँ
कई जीत बाकी हैं, कई हार बाकी हैं, अभी तो जिंदगी का सार बाकी
हसरतें बहुत हैं इस उदास शाम की
Abhinay Krishna Prajapati-.-(kavyash)
जो कभी सबके बीच नहीं रहे वो समाज की बात कर रहे हैं।
आविष्कार एक स्वर्णिम अवसर की तलाश है।
23/200. *छत्तीसगढ़ी पूर्णिका*
एक और बलात्कारी अब जेल में रहेगा
मुझे छूकर मौत करीब से गुजरी है...
दस्तरखान बिछा दो यादों का जानां
एक मेरे सिवा तुम सबका ज़िक्र करती हो,मुझे
इच्छाओं से दूर खारे पानी की तलहटी में समाना है मुझे।
मैं अलग हूँ
Sandhya Chaturvedi(काव्यसंध्या)