कभी सोचा था…
कभी सोचा था…
कभी सोचा था ,
उडते हुए परिंदे देखकर,
काश! मुझे भी होते पंख,
मै भी उडती फिजाओ में बाहें फैलाकर…
आसमानो से गिरती हुई बारिश की बूँदें ,
यूँ आकर गिरती इन गालों पे,
महक उठती ती प्यार की अंगडाई,
उँचाई रिमझिम बारिश की देखकर ,
मै भी बरसती फिजाओं में बाहें फैलाकर…
दूर से गुजरते थे वो विमान,
उम्मीदों के एहसास समेटकर,
मुझे भी उडना था उसके साथ,
हवाओं से बातें बतलाकर ,
मै भी गूंजती फिजाओं में बाहें फैलाकर…
सपनो कों आदत है ऊँचा उडने की,
पकडकर मेरा हाथ हरदम साथ चलने की
दिल की गहराईयो से दिल को छूने की,
यही आरजू हर वक्त होती है,
मै भी चलती फिजाओं में बाहें फैलाकर…
सौ . मनीषा आशिष वांढरे…