कभी-कभी / (नवगीत)
:: कभी-कभी ::
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कभी-कभी
ढोता हूँ पृथ्वी
अपने ही
दुर्बल कंधों पर
कभी-कभी
सागर की तह तक
जाना पड़ता
है आँखों को,
कभी-कभी
ऊँचाई नभ की
उड़ना पड़ती
है पाँखों को
आँखों की
पाँखें फैलाए,
पाँखों में भी
आँख लगाए
होते रहते
हैं समझौते
मेरे,तेरे
अनुबंधों पर
कभी-कभी
वह कहना पड़ता
जो न कभी
कहना था मुझको,
कभी-कभी
वह सहना पड़ता
जो न कभी
सहना था मुझको
और न ऐंसा
यदि कह पाऊँ,
घाव न जीवन
के सह पाऊँ
चोट गज़ब
पड़ती है मित्रो!
जीवन के
कोमल रंध्रों पर
कभी-कभी
सुख भी आ जाता
शीत हवा
के, झौंके जैसा
कभी-कभी
दुख भी आ जाता
गर्म हवा
के,झटके जैसा
सुख न कभी
तन को इतराए
दुख न कभी
मन को घबराए
इसीलिए
रचता हूँ कविता
दुनिया के
गोरख-धंधों पर
कभी-कभी
ढोता हूँ पृथ्वी
अपने ही
दुर्बल कंधों पर
— ईश्वर दयाल गोस्वामी
छिरारी (रहली),सागर
मध्यप्रदेश ।