कबीर
सामाजिक अन्तर्विरोधों , रूढियों तथा कुत्सित मान्यताओं से जर्जरित समाज को दिशा देने में कबीर का व्यक्तित्व ही सक्षम था । वे किसी एक धर्म , सम्प्रदाय के न होकर समूची मानवता के थे । उनका धर्म मानव धर्म था । वे सम्प्रदाय के पक्षधर थे साम्प्रदायिकता के नहीं क्योंकि साम्प्रदायिकता समाज के विघटन के लिए उत्तरदायी है ।
कबीर ने खूनी सांप्रदायिकता से तबाह होते हुए देश को बचाने के उद्देश्य से एक सर्वग्राह्य भक्ति पद्धति का आविष्कार किया जिसमें सामाजिक क्रान्ति की पुरजोर मांग थी ~
पाहन पूजैं हरि मिलै, तो मैं लू पूजूं पहार।घर की चाकी कोई न पूजै, पीसि खाय संसार।।
कबीर में खण्डन करने का साहस भी था और तर्क भी ।
आज भी कबीर जैसे व्यक्तित्व की आवश्यकता है जो अपनी बात निडरता से कह सके ।धर्मान्तरण तथा अन्य सामाजिक अन्तर्विरोधों का सामना कर सके ।